आश्रम अब आध्यात्मिक केंद्र नहीं रहे

आधुनिक समय में आश्रमों का स्वरूप और उद्देश्य दोनों बदल चुके हैं। अब ये आध्यात्मिक साधना और आत्मान्वेषण के केंद्र न रहकर छुट्टियाँ बिताने, पिकनिक और पार्टी करने के स्थान बन चुके हैं। यहाँ आकर न केवल लोग मौज-मस्ती करते हैं, बल्कि खुद को धार्मिक, सात्विक और आध्यात्मिक होने का अहंकार भी बनाए रखते हैं।
आश्रमों में बिताए गए वर्षों के अनुभवों से यह समझ में आया कि चाहे आश्रम कोई भी हो, उनका मुख्य आकर्षण धनाढ्य और शासक वर्ग के लिए होता है। आश्रम प्रबंधन उन लोगों के प्रति विशेष रूप से झुकाव रखता है जो आर्थिक सहयोग या अन्य प्रकार की सहायता करते हैं। उनके लिए सभी नियम-कानून भंग हो जाते हैं। आश्रमों के साधु-संन्यासियों की स्थिति इन धनाढ्य अतिथियों और ट्रस्टियों के सामने किसी होटल के वेटर या रूमबॉय से भी अधिक दयनीय हो जाती है।
मेरे अनुभवों ने यह सिखाया कि आश्रम उन लोगों के लिए नहीं हैं जो एकांत प्रिय हैं, जो आत्म-चिंतन और नवीन विचारों की खोज में हैं। यह स्थान उनके लिए नहीं है जो व्यर्थ की परंपराओं और मानसिक गुलामी का त्याग करना चाहते हैं। आश्रमों में भी वही मानसिकता हावी रहती है जो समाज के अन्य हिस्सों में देखने को मिलती है।
लुटेरे, माफिया और उनके समर्थक ऐसे व्यक्तियों को पसंद नहीं करते जो उनकी मानसिकता का हिस्सा न बनें। मेरे जैसे लोग, जो इनसे समझौता नहीं करना चाहते, उनके लिए आश्रम उपयुक्त स्थान नहीं हो सकता। यही कारण है कि मैंने आश्रम त्यागने के बाद किसी अन्य आश्रम में जाने का विचार नहीं किया। मैंने स्वयं की भूमि लीज़ पर लेकर कृषि आधारित जीवन को अपनाने का निर्णय लिया। यह एक कठिन प्रक्रिया रही क्योंकि आश्रम छोड़ने के साथ ही शुभचिंतक और आर्थिक सहयोगी भी दूर हो गए। इसके बावजूद, मुझे अपनी व्यवस्था स्थापित करने में एक वर्ष से अधिक का समय लगा।
यह भी स्वाभाविक है कि जब कोई व्यक्ति लुटेरों और माफियाओं के विरुद्ध खड़ा होता है, तो समाज, परिवार और सगे-सम्बंधी भी उसका साथ छोड़ देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी आजीविका इन्हीं के कृपा और दया पर निर्भर होती है। लोग तभी सहयोग करते हैं जब आप उनकी मानसिकता और अधीनता स्वीकार लें। लेकिन मेरे लिए यह संभव नहीं था। मैं न तो किसी की अधीनता स्वीकार कर सकता हूँ, और न ही किसी और के जैसा बन सकता हूँ।
हर व्यक्ति के अपने-अपने गुरु, दर्शन और मान्यताएँ होती हैं। लेकिन हर व्यवस्था में अंततः मानसिक गुलामी का ही साम्राज्य है। चाहे वह कितना भी महान, प्राचीन या आधुनिक क्यों न हो। मैंने देखा है कि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भीड़ धीरे-धीरे मवेशियों में बदल जाती है। यही कारण है कि मैंने किसी भी प्रकार के बंधन को स्वीकार न करने का निर्णय लिया।
अब मेरे जीवन का उद्देश्य एकांत में, परिवार और समाज से दूर बिताने का है। जब बड़े-बड़े जागृत और चैतन्य आत्माएँ इस दुनिया को जागृत नहीं कर पाईं, तो मैं अपनी ऊर्जा इन लुटेरों और उनकी मानसिक गुलामी में जीने वाली भीड़ पर क्यों व्यर्थ करूँ?
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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