राजनीति और मानवता: एक विरोधाभासी संबंध

राजनीति और मानवता, ये दोनों सदैव विपरीत ध्रुव प्रतीत होते रहे हैं। जबकि आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए थी कि राजनीति में वही व्यक्ति सक्रिय हों, जो मानवीय गुणों से परिपूर्ण और मानवता के प्रति समर्पित हों। परंतु विडंबना यह है कि राजनीति में सफलता उन्हीं को मिलती है, जिनमें मानवता का ह्रास हो चुका हो या हो रहा हो।
राजनीति में मानवता की अनुपस्थिति
चाहे रोहित वेमुला का मामला हो या निर्भया कांड, मानवता की आड़ लेकर राजनेता इन घटनाओं को अपने लाभ के लिए हाईजैक कर लेते हैं। न्याय और व्यवस्था के नाम पर जो हो-हल्ला मचता है, वह अक्सर ऐसा आभास कराता है मानो देश की न्यायिक प्रणाली पूरी तरह चरमरा चुकी हो। और शायद यह सच भी है।
यदि ऐसा नहीं होता, तो अपराधियों को जेल से बाहर आकर सत्ता में बैठने का अवसर नहीं मिलता। निर्दोष व्यक्ति जेलों में सड़ते नहीं रहते। घोटालेबाज और दागी नेता सत्ता के शिखर पर नहीं पहुँचते। अमीरों के ऋण माफ नहीं किए जाते, जबकि किसानों और आदिवासियों को आत्महत्या के लिए विवश कर देते हैं सूदखोर।
राजनीति का स्वरूप: मानवता-विरोधी और पूंजीवाद-समर्थक
राजनीति मानवता के विरोध में और भौतिकतावाद एवं पूंजीवाद के समर्थन में सदैव अग्रसर रहती है। मानव कितने ही मरें, उनके घर और सपने जलकर राख हो जाएँ, बच्चों का भविष्य अनाथ हो जाए—इन सबका प्रभाव राजनेताओं पर नगण्य रहता है। उनके लिए जनता केवल एक संख्या मात्र है, जो चुनाव के समय उपयोगी होती है।
धर्म और समाज की राजनीति में भूमिका
धर्म, समाज और राजनीति, जो मानव कल्याण के लिए स्थापित हुए थे, आज केवल स्वार्थ और मक्कारी के उपकरण बनकर रह गए हैं। धार्मिक संस्थाएँ, जो समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थीं, राजनेताओं की चाटुकारिता में लगी रहती हैं।
धर्म के ठेकेदारों का ध्यान कभी उन गरीबों की त्रासदी पर नहीं जाता, जो धर्म परिवर्तन का सहारा लेते हैं। ऐसे में, वह व्यक्ति एक दड़बे से दूसरे दड़बे में चला तो जाता है, लेकिन उसकी समस्याएँ वहीं की वहीं रहती हैं। इन धार्मिक और सामाजिक संस्थानों को कभी भी उन वास्तविक मुद्दों की चिंता नहीं होती, जिनसे मानवता का उद्धार हो सके।
निष्कर्ष: मानवता आज पाप क्यों?
आज मानवता की बात करना पाप हो गया है। आदिवासियों और किसानों के हित की बात करना वामपंथ कहलाता है। दूसरी ओर, दक्षिणपंथी और धर्म के ठेकेदार समाज को बाँटने और दंगों का खेल खेलने में व्यस्त रहते हैं।
यह विडंबना है कि जनता स्वयं इन स्वार्थी राजनेताओं और धर्म के ठेकेदारों का समर्थन करती है। इस विरोधाभास को समझना और इसे समाप्त करना ही आज की सबसे बड़ी चुनौती है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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