गुरु, भक्ति और समाज की विडंबना

इस संसार में किसी के जन्म-मरण से तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि उसके नाम पर व्यापार खड़ा न किया जा सके, कमाई का साधन न बनाया जा सके। यही कारण है कि वे गुरु, जिनके नाम पर अरबों-खरबों की संपत्ति खड़ी होती है, जिनके आश्रमों में राजनीति चमकती है, जिनकी शिक्षाओं से किसी की दुकान चलती है, वे ही महान और पूजनीय माने जाते हैं। वे कथावाचक, जो किसी गुरु के दोहे, चौपाइयाँ, श्लोक या आयतें सुना-सुनाकर लाखों-करोड़ों कमा रहे हैं, उनके अनुयायियों की नजर में वही गुरु महान हो जाते हैं।
लेकिन यदि सत्य की दृष्टि से देखा जाए, तो गुरुओं की कोई कमी नहीं है। हर गली, हर घर, हर परिवार में कोई न कोई गुरु मिल ही जाएगा। वास्तव में, हर व्यक्ति स्वयं में एक गुरु होता है, केवल आवश्यकता होती है एक सच्चे शिष्य की। यदि कोई व्यक्ति शिष्य बनने को तैयार हो, तो उसे अपने चारों ओर ज्ञान की भरमार दिखाई देने लगेगी। राह चलते ही कोई न कोई ज्ञान दे ही देता है, और वह भी नि:शुल्क। लेकिन विडंबना यह है कि ऐसे स्वाभाविक गुरुओं को कोई सम्मान नहीं देता, कोई उन्हें पूजनीय नहीं मानता।
कई गुरुओं के विचार पढे मैंने अपने जीवन में। कुछ से व्यक्तिगत रूप से मिला, आश्रम जीवन को जिया और वर्षों तक आध्यात्मिक खोज में भटका। लेकिन अंततः यही समझ पाया कि चाहे गुरु कोई भी हो, धार्मिक ग्रंथ कोई भी हो, आश्रम, पंथ या मठ कोई भी हो, उनके अनुयायी, भक्त और शिष्य एक ही सामान्य सिद्धांत का पालन करते हैं। वह सामान्य सिद्धांत यह है कि वे अपने आराध्य की आरती, पूजा, स्तुति, व्रत-उपवास, नमाज-रोजा में मग्न रहते हैं, परंतु समाज में व्याप्त अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कभी मुखर नहीं होते। वे देश के शोषकों और भ्रष्टाचारियों की भक्ति, चाकरी और गुलामी को ही अपनी नियति मान लेते हैं।
मैंने आज तक ऐसा कोई भी धार्मिक ग्रंथ, संप्रदाय, समाज, गुरु, ईश्वर, पैगंबर, मसीहा या अवतार नहीं देखा, जिसके अनुयायी इन शोषण करने वाले माफियाओं और भ्रष्ट नेताओं की गुलामी से मुक्त हो सके हों। इसके बावजूद, लोग धार्मिक ग्रंथों को रटने और दूसरों को रटाने में दिन-रात एक किए रहते हैं, जैसे कि यही उनके जीवन का परम लक्ष्य हो।
ओशो, जे. कृष्णमूर्ति, श्री आनंदमूर्ति (प्रभात रंजन सरकार) मेरे लिए प्रेरणास्रोत अवश्य रहे हैं, लेकिन मैं किसी का शिष्य या अनुयायी नहीं हूँ। मैंने उनके अनुयायियों को भी सत्ता और धन के पुजारियों की भक्ति, चाकरी और गुलामी करते देखा है। इसलिए अब मैं किसी भी गुरु का शिष्य या किसी भी संप्रदाय का अनुयायी नहीं हूँ।
गुरु का उद्देश्य केवल अंधभक्ति को जन्म देना नहीं, बल्कि व्यक्ति को सशक्त और स्वतंत्र बनाना होना चाहिए। जब तक व्यक्ति स्वयं विचार नहीं करेगा, तब तक वह किसी न किसी रूप में मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा रहेगा।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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