चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्

श्लोक:
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदाः न यज्ञः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
यह श्लोक अद्वैत वेदांत और शिवत्व के मूल भाव को प्रकट करता है। इसे आदि शंकराचार्य के प्रसिद्ध “निर्वाण षट्कम्” से लिया गया माना जाता है, जिसमें आत्मा की वास्तविकता को स्पष्ट किया गया है।
व्याख्या:
1. न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
👉 “मुझे न पुण्य प्राप्त होता है, न पाप; न सुख मुझे प्रभावित करता है, न दुःख।”
- यह पंक्ति यह स्पष्ट करती है कि सच्चा आत्मस्वरूप इन सांसारिक और द्वंद्वात्मक अनुभवों से परे है।
- पुण्य और पाप कर्म के फल हैं, सुख और दुःख मन की अवस्थाएँ हैं, लेकिन आत्मा इन सबसे परे है।
- आत्मा न अच्छे कार्यों से बंधती है और न बुरे कार्यों से, क्योंकि यह केवल एक साक्षी (द्रष्टा) मात्र है।
2. न मंत्रो न तीर्थं न वेदाः न यज्ञः।
👉 “मैं न किसी मंत्र का जप करने वाला हूँ, न किसी तीर्थ की यात्रा करने वाला हूँ, न ही मुझे वेदों और यज्ञों की आवश्यकता है।”
- यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा किसी बाह्य धार्मिक प्रक्रिया से प्रभावित नहीं होती।
- वेद, मंत्र, तीर्थ और यज्ञ सभी आत्म-साक्षात्कार के साधन हैं, लेकिन सच्ची आत्मा इन सब से परे है।
- जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है, तो उसे इन माध्यमों की आवश्यकता नहीं रहती।
3. अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
👉 “मैं न भोजन हूँ, न भोज्य पदार्थ हूँ और न ही भोजन करने वाला हूँ।”
- यह सूक्ष्म आध्यात्मिक सत्य को उजागर करता है कि आत्मा कोई भौतिक तत्व नहीं है।
- भोजन, भोज्य और भोक्ता—तीनों ही शरीर और मन से जुड़े हुए हैं, लेकिन आत्मा इन सबसे परे है।
- यह अद्वैत वेदांत के “नेति-नेति” (न यह, न वह) सिद्धांत का अनुसरण करता है, जिससे व्यक्ति को समझ में आता है कि वह केवल शुद्ध चेतना है।
4. चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
👉 “मैं चिदानंदस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ।”
- “चिदानंद” दो शब्दों से बना है— चित् (शुद्ध चेतना) और आनंद (परम सुख)।
- इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा न केवल चेतन है, बल्कि उसका स्वरूप आनंदमयी भी है।
- “शिवोऽहम्” का अर्थ है कि मैं शिव हूँ, अर्थात् शुद्ध, निर्विकार, अजन्मा, और अनंत।
श्लोक का सार:
यह श्लोक हमें यह समझाने का प्रयास करता है कि हम न तो शरीर हैं, न मन, न कर्मों के फल भोगने वाले जीव। हम शुद्ध चैतन्यस्वरूप हैं, जो किसी भी सांसारिक द्वंद्व से परे हैं। हमें स्वयं को सच्चिदानंद रूप में पहचानकर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने की ओर बढ़ना चाहिए।
“शिवोऽहम्” का तात्पर्य यह नहीं कि हम भौतिक रूप से शिव हैं, बल्कि यह कि हमारी आत्मा का स्वरूप शिव के समान है—शुद्ध, अद्वितीय, और आनंदमय।
प्रयोगिक दृष्टिकोण से इस श्लोक का महत्व:
- अहंकार का विनाश: यह श्लोक हमें सिखाता है कि हम जो कुछ भी मानते हैं—सुख, दुःख, पुण्य, पाप—वह सब असत्य है। यह अहंकार का नाश करता है और आत्म-साक्षात्कार में सहायक बनता है।
- आध्यात्मिक जागृति: यह हमें भौतिक और मानसिक स्तर से ऊपर उठने में मदद करता है और हमारी चेतना को उच्चतम अवस्था तक पहुँचाने का मार्ग दिखाता है।
- सत्य की पहचान: यह श्लोक हमें यह समझने में मदद करता है कि हम शरीर और मन नहीं हैं, बल्कि शुद्ध चेतना हैं, जो सदा मुक्त और परमानंदस्वरूप है।
निष्कर्ष:
यह श्लोक हमें मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रेरित करता है। जो भी व्यक्ति इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, वह जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर परम आनंद की अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
🕉 शिवोऽहम् शिवोऽहम्! 🔱
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