समाज, सेक्स और प्रेम : एक गूढ़ अंतर्दृष्टि

समाज हमेशा से सेक्स के विरोध में मुखर दिखाई देता है, लेकिन उसका यह विरोध वैसा ही होता है, जैसा कि राजनैतिक दलों का महँगाई, भ्रष्टाचार, एफडीआई, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध होता है। जब तक सत्ता हाथ में नहीं आती, तब तक इनका विरोध किया जाता है, और सत्ता मिलते ही वही चीज़ें विकास की मौसी बन जाती हैं। समाज भी इसी दोहरे मापदंड का अनुसरण करता है।
यदि समाज वास्तव में सेक्स विरोधी होता, तो सभ्य समाज में प्रचलित अपशब्दों का आधार सेक्स न होता। किंतु देखें तो जितनी भी गालियाँ हैं, वे सभी सेक्स पर ही आधारित होती हैं—चाहे होली के अवसर पर गाई जाने वाली गालियाँ हों या विवाह समारोहों में प्रचलित लोकगीत। यह विरोध कैसा, जहाँ एक ओर सेक्स के नाम पर गालियों को सहज स्वीकार कर लिया जाता है और दूसरी ओर इसे निषिद्ध घोषित किया जाता है?
समाज सेक्स का इतना विरोधी है कि यदि कोई युवक-युवती प्रेमपूर्वक शारीरिक संबंध स्थापित कर लें, तो उसे प्रेम नहीं, बल्कि वासना कहा जाता है। इससे यह धारणा पुष्ट होती है कि प्रेम और सेक्स परस्पर विरोधी हैं। यही कारण है कि विवाह के पश्चात पति-पत्नी के मध्य मनमुटाव और तलाक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि विवाह का आधार सेक्स होता है, और समाज सेक्स को प्रेम का शत्रु मानता है। जब पति-पत्नी के बीच सेक्स होता है, तो वही साथी शत्रु के रूप में दिखाई देने लगता है।
मैंने सुना है कि मकड़ी जिस नर से संभोग करती है, उसे ही खा जाती है। शायद उसने भी मनुष्यों के समाज से यह सीख लिया कि सेक्स महापाप है और प्रेम का शत्रु है।
विवाह बनाम प्रेम : दो भिन्न आयाम
विवाह और प्रेम को समानार्थी मानने की भूल सदियों से चली आ रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि विवाह एक समझौता है, जबकि प्रेम समर्पण। विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है, जबकि प्रेम एक सहज प्राकृतिक अनुभूति। विवाह बंधन है, और प्रेम स्वतः मुक्ति का मार्ग। विवाह में अहंकार टकराता है, जबकि प्रेम में अहंकार तिरोहित हो जाता है।

जब सेक्स प्रेम से उत्पन्न होता है, तो वह परमानंद की ओर ले जाता है। लेकिन जब सेक्स केवल वैवाहिक अनुबंध का परिणाम होता है, तो यह मात्र क्षणिक तृप्ति देता है, क्योंकि भीतर का मन जानता है कि यह प्रेम नहीं, बल्कि एक सौदा है। समाज द्वारा तय किए गए इस सौदे में लड़की वालों ने दहेज देकर वर खरीदा है, और वर पक्ष अपनी संपत्ति और नौकरी के बल पर वधू को अपने अधीन मानता है। इस समझौते में न तो पति को पत्नी से प्रेम होता है, न ही पत्नी को पति से। समाज ने उन पर विवाह का बोझ डाल दिया है, तो अब उसे ढोना ही पड़ेगा। इसलिए विवाह के कुछ ही समय पश्चात दोनों एक-दूसरे से ऊबने लगते हैं और मनमुटाव जन्म लेने लगता है।
प्रेम की शक्ति
जब किसी से प्रेम होता है, तो दो जिस्म एक जान बन जाते हैं। प्रेम में पड़ा व्यक्ति आनंदमय रहता है, उसके भीतर असाधारण ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। प्रेमी व्यक्ति नफरत करना ही भूल जाता है; वह हर किसी से प्रेमपूर्वक मिलता है। लेकिन यदि उन्हीं प्रेमियों को विवाह के बंधन में बाँध दिया जाए, तो वे धीरे-धीरे तनावग्रस्त और निराश हो जाते हैं। वैवाहिक दंपत्ति अक्सर थके हुए, चिड़चिड़े और असंतुष्ट दिखाई देते हैं, वे हर किसी से झगड़ने को तत्पर रहते हैं।
असफल प्रेमियों के साथ भी यही होता है, विशेषकर तब जब उनका प्रेम भौतिक सुख-सुविधाओं पर आधारित होता है। प्रेम यदि आत्मा का आकर्षण है, तो वह तृप्त करता है, परंतु यदि प्रेम किसी बाहरी कारणवश उत्पन्न हुआ है—धन, सौंदर्य, प्रतिष्ठा—तो वह समाप्त होते ही दुख का कारण बन जाता है।
निष्कर्ष
समाज के बनाए नियमों में प्रेम और सेक्स को एक-दूसरे का विरोधी बना दिया गया है, जबकि वास्तविकता यह है कि प्रेम और सेक्स एक-दूसरे के पूरक हैं। जब समाज इन दोनों के प्रति अपनी विकृत धारणाओं को त्यागकर एक सहज दृष्टिकोण अपनाएगा, तभी वास्तविक प्रेम और आनंद का संचार होगा।
~ विशुद्ध चैतन्य
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