संन्यास का वास्तविक स्वरूप: एक गहरी यात्रा की कथा

संन्यास, एक ऐसा शब्द है जो हमारे समाज में सदियों से प्रतिष्ठित रहा है। शास्त्रों में इसका चित्रण बहुत पवित्र और विशेष रूप से किया गया है। लेकिन क्या आपने कभी यह विचार किया कि संन्यासी वास्तव में होता कौन है?
क्या संन्यासी वही होता है, जैसा शास्त्रों में वर्णित है?
या फिर वह एक मौलिक व्यक्तित्व और मौलिक आविष्कार है, जो केवल समय की कठोरता और जीवन के अनुभवों से उत्पन्न होता है?
एक संन्यासी वह होता है, जो जीवन के हर पल को बिना किसी मोह के जीता है। वह अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को इस संसार से परे देखता है। एक संन्यासी वह होता है, जो सत्य की खोज में घर से निकलता है, अपने कंधे पर केवल एक झोला रखकर, और फिर हजारों-लाखों का मालिक बन जाता है। वह संन्यासी जो पैदल चलता था, आज महंगी कारों में यात्रा करता है—लैंड क्रूज़र, पजेरो, मर्सिडीज़—जो उसकी पहचान बन जाते हैं। लेकिन क्या यह उसका वास्तविक स्वरूप है?
एक संन्यासी वह भी होता है, जिसका कोई निशान नहीं रहता। समय के साथ, वह इस दुनिया में खो जाता है। वे लोग भी उसे भूल जाते हैं, जिनके लिए वह कभी सबसे महत्वपूर्ण था। जिनके बिना उनका दिन अधूरा लगता था, वे अब उसे याद भी नहीं करते। वह व्यक्ति, जिसका अस्तित्व कभी लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा था, समय के साथ स्वतः खो जाता है। जो स्थान उसने त्यागा, वहाँ से जुड़े लोग भी धीरे-धीरे उसकी यादों को भुला देते हैं। जिनका वह कभी प्रिय था, वे उसे पराया मानने लगते हैं।
लेकिन फिर भी, संन्यासी के बारे में शास्त्रों में जो व्याख्याएँ दी गई हैं, वे केवल एक आदर्श हैं, एक दिशा दिखाती हैं। वास्तव में, संन्यासी केवल शास्त्रों का अनुकरण नहीं करता। वह तो एक अनुभव है, एक यात्रा है, जो न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक और आत्मिक रूप से भी होती है। संन्यासी को कोई पहचान नहीं चाहिए, कोई नाम नहीं चाहिए, क्योंकि उसका अस्तित्व स्वयं के भीतर ही समाहित हो जाता है।
मैं भी स्वयं को उस संन्यासी के रूप में देखता हूँ, जिसकी न तो कोई पहचान है, न ही कोई अपना। न तो बचपन का कोई साथी है अब साथ, न ही किशोरावस्था का। जवानी के संगी-साथी भी अब कोई साथ नहीं और बुढ़ापे का भी कोई नहीं होगा संभवतः। यह शायद मेरी अंतिम यात्रा है इस पृथ्वी पर। और जैसे-जैसे समय बीत रहा है, सब कुछ छूटता जा रहा है। अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मुझे इस दुनिया में बांध सके।
जब कोई मुझे अपना कहता है, तो ऐसा लगता है जैसे मैं किसी स्वप्न में हूँ, जैसे कोई फिल्म देख रहा हूँ। क्योंकि मैं वह नहीं हूँ, जैसा दुनिया मुझे देखना चाहती है, या जैसा शास्त्रों में वर्णित है। मुझे अब किसी भी रिश्ते से मोह नहीं है, और न ही किसी से कोई अपेक्षा है।
इसलिए, मैं यह कहता हूँ: मुझसे कभी कोई मोह मत पालिए। मुझे अपना बनाने का प्रयास मत करिए। मुझे किसी माफिया या साधु-समाज की तरह न देखिए, जो किसी उद्देश्य के लिए आपके सामने आते हैं। मैं तो एक मुसाफ़िर हूँ, जिसका कोई ठिकाना नहीं।
एक बहुत सुंदर गीत है, जो मेरे जैसे लोगों के जीवन को सही से व्यक्त करता है, और वह गीत है:
“मुसाफ़िर हूँ मैं यारों,
ना घर है ना ठिकाना,
मुझे चलते जाना है, बस, चलते जाना।
मुसाफ़िर…
एक राह रुक गई, तो और जुड़ गई,
मैं मुड़ा तो साथ-साथ, राह मुड़ गई,
हवा के परों पे, मेरा आशियाना,
मुसाफ़िर…
दिन ने हाथ थाम के, इधर बिठा लिया,
रात ने इशारे से, उधर बुला लिया,
सुबह से शाम से मेरा, दोस्ताना,
मुसाफ़िर…”
इन शब्दों में न केवल यात्रा की अपितु आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता की एक गहरी भावना समाई हुई है। यही वह संन्यास है, जिसका कोई नाम नहीं, कोई स्थान नहीं, केवल अनंत यात्रा है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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