चुनमुन परदेसी और निःस्वार्थ सेवा का दृष्टिकोण

कई हज़ार वर्ष पुरानी बात है। चुनमुन परदेसी एक ऐसे देश में पहुंचा, जहां के लोग बहुत मेहनती थे और अपनी मेहनत के दम पर जिंदा रहते थे।
उस देश में ना तो कोई किसी से सहायता मांगता था, और ना ही कोई किसी की सहायता करता था। शुद्ध कर्मवादी वैश्यों और शूद्रों का देश था। यदि दाम नहीं तो दान नहीं, काम नहीं, सेवा नहीं, सहायता नहीं।
चुनमुन परदेसी ने वहां जिससे भी सहायता मांगी, उसने उपदेश सुना दिया कि गांधी ने कहा था, नेहरू ने कहा था, हिटलर ने कहा था, मुसोलिनी ने कहा था, मोदी ने कहा था, अंबेडकर ने कहा था, माओत्से तुंग ने कहा था, मार्क्स ने कहा था, अकबर ने कहा था, ओरंगजेब ने कहा था, चाणक्य ने कहा था, अमिताभ बच्चन ने कहा था, तेंदुलकर ने कहा था, गोविंदा ने कहा था…. “There is no free meal in this slave’s world of Mafia. यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है।”
चुनमुन परदेसी के पास ना तो पैसा था दाम चुकाने के लिए और ना ही कोई हुनर था पैसा कमाने के लिए। बिकना सीखा नहीं था कि राष्टवादियों, धार्मिकों, पढ़े लिखों की तरह ईमान, जमीर जिस्म बेचकर धन, पद और मान सम्मान खरीद लेता।
तो कई दिनों तक इधर उधर भटकते हुए चुनमुन परदेसी एक दिन एक गांव में पहुंचा। वहां भी सभी मेहनती और कर्मवादी लोग ही मिले। वह निढाल होकर एक पेड़ के नीचे लेट गया। और सोचने लगा कि दुनिया कितनी मेहनती और आधुनिक हो गई कि परोपकार, दान, दया, करुणा, सेवा सहायता जैसी बातें अब केवल किस्से कहानियों में पढ़ने मिलती हैं। वास्तविकता में तो ये सब मानव समाज से लुप्त हो चुके हैं। अब तो केवल उन्हें ही सम्मान मिलता है, जो बिकाऊ हो, या जो उपयोगी वस्तु या प्राणी की श्रेणी में आता हो। जबकि मुझमें तो दोनो ही गुण नहीं है।
अचानक उसे एक स्त्री की आवाज सुनाई पड़ी, “परदेसी हो ? भूखे प्यासे दिख रहे हो, लो पानी पी लो और हाथ मुंह धोकर खाना खा लो।”
चुनमुन परदेसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि अत्याधुनिक उन्नत मेहनती लोगों के देश में कोई बिना दाम मांगें, बिना जात, धर्म और कमाई पूछे पानी और भोजन दे सकता है ?
चुनमुन परदेसी ने आँखें खोली और उस ओर देखा जिस ओर से आवाज आयी थी। उसके सामने एक वृद्धा खड़ी थी। उसकी साड़ी पुरानी थी, लेकिन चेहरे पर एक अजीब सा तेज था। आँखों में अपनापन झलक रहा था।
चुनमुन परदेसी को यकीन नहीं हुआ। उसने संकोचवश पूछा, “माँ, क्या इसके बदले में मुझे कुछ देना होगा?”
वृद्धा मुस्कुराई, “बेटा, भूखे को भोजन देना कोई सौदा नहीं, पुण्य है। मैं कोई व्यापारी नहीं जो हर चीज का दाम लगाऊं।”
यह सुनकर चुनमुन परदेसी की आँखों में आंसू आ गए। उसने झुककर वृद्धा के चरण स्पर्श किए और कहा, “माँ, आप इस देश की नहीं लगतीं। यहाँ तो हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। फिर आपने मुझे बिना मूल्य भोजन क्यों दिया?”
वृद्धा ने ठंडी सांस भरी और पास पड़ी एक पोटली उठाकर खोल दी। उसमें कुछ सुगंधित भोजन था और एक बर्तन में पानी था। उसने पानी निकालकर चुनमुन परदेसी को दिया और कहा, “बेटा, मैं भी कभी इसी समाज का हिस्सा थी, लेकिन जब मैंने देखा कि यह समाज केवल दाम-प्रतिदान पर ही टिका है, तो मैंने खुद को इस दौड़ से अलग कर लिया।”
“तो क्या इस समाज ने आपको भी ठुकरा दिया?” चुनमुन ने उत्सुकता से पूछा।
“ठुकराया नहीं बेटा, मैंने ही इस समाज को ठुकरा दिया।” वृद्धा की आँखों में एक अजीब सी चमक थी।
“पर क्यों?”
“क्योंकि मैंने समझ लिया कि केवल लेन-देन का जीवन, जीवन नहीं होता। अगर हर चीज का मोल ही लगाया जाए, तो इंसान और मशीन में कोई फर्क नहीं रह जाता। मैंने तय किया कि जब तक जिंदा हूँ, जितना बन पड़े, बिना स्वार्थ दूसरों की मदद करूंगी।”
चुनमुन परदेसी को ऐसा लगा जैसे उसे कोई नया ज्ञान मिल रहा हो। उसने धीरे-धीरे भोजन ग्रहण किया और सोचा, “क्या वास्तव में दुनिया में अब भी ऐसे लोग हैं, जो बिना स्वार्थ के कुछ देते हैं?”
भोजन करने के बाद उसने वृद्धा से कहा, “माँ, आपने मुझे भोजन दिया, पर मैं आपके लिए कुछ नहीं कर सकता।”
वृद्धा मुस्कुराई, “बेटा, अगर वास्तव में कुछ लौटाना चाहते हो, तो जब भी अवसर मिले, किसी जरूरतमंद की सहायता करना। बस यही इस भोजन का मूल्य है।”
यह सुनकर चुनमुन परदेसी की आँखें चमक उठीं। उसने खुद से एक वादा किया—अब मैं किसी पर निर्भर नहीं रहूंगा, बल्कि स्वयं को इस योग्य बनाऊंगा कि किसी और भूखे, प्यासे, बेबस की मदद कर सकूं।
उसने वृद्धा को प्रणाम किया और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गया… लेकिन अब वह केवल एक राहगीर नहीं था। अब वह एक नया दृष्टिकोण लेकर आगे बढ़ रहा था—निःस्वार्थ सेवा का दृष्टिकोण।
(समाप्त)

Support Vishuddha Chintan
