संन्यास, स्वाभिमान और सहयोग: एक गहन दृष्टिकोण

कई लोग कहते हैं, “जब तुमने संन्यास ले लिया, समाज का त्याग कर दिया, तो फिर झोंपड़ी की आवश्यकता क्यों? आर्थिक सहयोग क्यों चाहिए? यदि जंगल में ही रहना है, तो जंगलियों की तरह रहो। क्यों मांगते हो सहायता उस समाज से जो स्वयं माफियाओं का गुलाम है?”
इसी मानसिकता ने हमारे समाज को भीतर से खोखला बना दिया है। लोग समझते हैं कि आत्मनिर्भरता का अर्थ है सबकुछ अकेले कर लेना, बिना किसी सहयोग के। वे भूल जाते हैं कि समाज का आधार ही परस्पर सहयोग पर टिका हुआ है।
स्वाभिमान और समाज की वास्तविकता
स्वाभिमान का पाठ पढ़ाने वाले स्वयं यह नहीं समझते कि स्वाभिमान क्या है, समाज क्या है, परोपकार क्या है, और राष्ट्रसेवा का वास्तविक अर्थ क्या है।
मुझे जीवन के दो तिहाई वर्ष इसी समाज में बिना किसी सरकारी सहायता या बाहरी सहयोग के बिताने पड़े। न भीख मांगी, न किसी को छल-कपट से ठगा, न झूठे वादों का सहारा लिया। जो भी अर्जित किया, वह भी खो दिया।
अब जब मैं एक छोटी-सी झोंपड़ी बना रहा हूँ, तो लोग प्रश्न उठाते हैं कि “फिर सहयोग क्यों चाहिए?” सही सोचते हैं वे, क्योंकि जब कोई अपने लिए कुछ कर रहा हो, तो उसे सहयोग नहीं देना चाहिए। लेकिन जब वही व्यक्ति कुछ बड़ा कर ले, तब वे दौड़कर पहुंच जाते हैं नैतिकता, समाज और राष्ट्रधर्म की शिक्षा देने। फिर वे ही लोग सहायता मांगने आते हैं—पार्टी के लिए, भंडारे के लिए, चंदे के लिए। सरकार टैक्स मांगने आ जाएगी, भले ही उसके उत्थान में कोई योगदान न रहा हो।
वास्तविक सहयोग कहां से आता है?
मैं कभी किसी सरकार, संगठन, परिवार या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहा। और अनुभव यही सिखाता है कि जिन पर सबसे अधिक विश्वास होता है, वे ही सबसे अधिक असहाय सिद्ध होते हैं जब उनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
मुझे सहायता अक्सर उन लोगों से मिलती है, जिनसे कोई आशा नहीं होती। बड़े-बड़े राजनीतिक लोगों ने केवल आश्वासन दिए, लेकिन कोलकाता के फुटपाथ पर टोपी बेचने वाले एक छोटे बालक ने अपनी एक दिन की पूरी कमाई दान कर दी। यही सच्चा परोपकार है, यही वास्तविक सहयोग है।
सहयोग और भीख में अंतर
आज के समाज में सहयोग मांगना भीख मांगने के समान माना जाता है। लेकिन यही तथाकथित स्वाभिमानी समाज रिश्वतखोरी को मेहनत की ऊपरी कमाई मानता है। यही समाज जो सहयोग मांगने वालों को भिखारी कहकर अपमानित करता है, वही लुटेरों और माफियाओं के सामने नतमस्तक हो जाता है।
जिनकी संतानें अपने ही देश और जनता को लूटने वालों की चाकरी कर रही हैं, वे मुझे नैतिकता और देशभक्ति सिखाने आ जाते हैं। जिनकी जेब से एक पैसा भी नहीं निकला, वे मुझे सिखाने आते हैं कि मुझे क्या लिखना चाहिए, कैसे जीना चाहिए।
समाज का असली चेहरा
अभी हाल ही में एक खबर पढ़ी थी—एक गरीब व्यक्ति ने अपनी भूख से तड़पती संतानों को मारकर आत्महत्या कर ली। शायद उसे भी यही सीख दी गई होगी कि “रिश्वतखोरी करो, देशद्रोहियों के सहयोगी बनो, लेकिन मेहनत की कमाई खाओ।” और वह बेचारगी में मर गया उस समाज में, जो अपने ही सदस्यों की सहायता करने में अक्षम है।
इसलिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका समाज कितना महान है, आपका नेता या सरकार कितनी शक्तिशाली है। क्योंकि जब किसी जरूरतमंद की सहायता करने की बात आती है, तब ये सभी असफल सिद्ध होते हैं।
मुझे किसी की अमीरी, पद, सत्ता या प्रभावशाली होने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि जब समय आता है, तब ये अपने ही समर्थकों के भी किसी काम नहीं आते।
– स्वामी विशुद्ध चैतन्य
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