धार्मिकता और सांप्रदायिकता में अंतर

मैंने देखा है, जो लोग पूजा-पाठ नहीं करते, जो ध्यान-भजन में लीन नहीं रहते, जो मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों के चक्कर नहीं लगाते—उनके भीतर दया, करुणा और प्रेम की अजस्र धारा प्रवाहित होती है। उनके लिए सेवा करना, किसी की सहायता करना या दान देना कोई विशिष्ट कार्य नहीं, बल्कि उनके स्वाभाविक आचरण का हिस्सा होता है। वे न तो इसे पुण्य मानते हैं, न प्रसिद्धि की चाह में ऐसा करते हैं। वे इसे वैसे ही सहज रूप से करते हैं, जैसे हम सांस लेते हैं।
मैं ऐसे लोगों को किसी संप्रदाय, किसी मत, किसी धर्म की संकीर्ण परिधि में नहीं बांध सकता। वे न तो हिंदू हैं, न वैदिक, न बौद्ध, न जैन, न सिख, न ईसाई और न ही किसी ‘वाद’ के अनुयायी। उन्हें अंबेडकरवादी, पेरियारवादी या नास्तिक मान लेना भी एक बड़ी भूल होगी।
वे सनातनी हैं, वास्तविक सनातनी!
वे सनातन धर्म की मूल आत्मा को जीते हैं, उसके मूल सिद्धांतों को अपने आचरण में ढाल चुके हैं। उनका जीवन प्रेम, सेवा, दया और करुणा का प्रतीक है, ठीक वैसे ही जैसे एक माँ निस्वार्थ भाव से अपने शिशु की देखभाल करती है। दूसरी ओर, जो लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, वे सेवा, दान और परोपकार भी एक व्यापार की तरह करते हैं—’मुझे क्या मिलेगा?’ इस प्रश्न के बिना वे कोई कार्य नहीं करते।
धर्म और ढोंग में अंतर समझें
स्मरण रहे, जो लोग गालियां दिए बिना, शालीनता और मर्यादा के साथ अपने विचार रखते हैं, वे ही वास्तव में धार्मिक हो सकते हैं। क्योंकि सनातन धर्म प्रेम और सत्य की शिक्षा देता है। परंतु जो लोग स्वयं को धर्म का ठेकेदार मान बैठे हैं, वे गाली-गलौच और कट्टरता को ही धार्मिकता समझने लगे हैं।
ऐसे लोग धर्म को आत्मसात नहीं करते, बल्कि किताबों में रटे-रटाए श्लोकों, आयतों और दोहों को तोते की तरह दोहराते रहते हैं। उनके लिए धर्म मात्र कर्मकांडों, परंपराओं और दिखावे तक सीमित रह गया है। उनसे प्रेम, करुणा, दया, सहयोग की अपेक्षा करना उस मरुस्थल में जल की खोज करने जैसा है, जहाँ सदियों से एक बूंद भी नहीं गिरी।
धर्म का व्यवसायीकरण
आपने देखा होगा, जो लोग सबसे अधिक धार्मिकता का ढोंग करते हैं, वही लोग त्योहारों को भी साम्प्रदायिक घृणा और द्वेष की आग में झोंक देते हैं। वे सोशल मीडिया पर अपने प्रोफाइल में देवी-देवताओं और गुरुओं की तस्वीरें लगाते हैं, धार्मिक ग्रंथों के श्लोक और आयतें पोस्ट करते हैं, लेकिन जब बात नैतिकता, शालीनता और सद्भाव की आती है, तो वे सबसे पीछे खड़े नजर आते हैं। यही लोग समाज में नफरत फैलाने वालों और देश के लुटेरों के सबसे बड़े समर्थक होते हैं।
धर्म का वास्तविक स्वरूप
धर्म का सार कर्मकांडों में नहीं, बल्कि आचरण में है। सच्चा धर्म न मंदिरों में है, न मस्जिदों में, न किसी धार्मिक ग्रंथ के पन्नों में, बल्कि वह तो आपके हृदय में बसता है। प्रेम, करुणा, सेवा और परोपकार ही सनातन धर्म के वास्तविक लक्षण हैं।
इसलिए, यदि आपको सच्चा सनातनी बनना है, तो ढोंग को छोड़िए, कर्मकांडों से परे जाइए और धर्म को अपने व्यवहार में उतारिए। तभी हम इस समाज को वैसा बना पाएंगे, जैसा हमारे ऋषियों और मुनियों ने स्वप्न देखा था।
~ विशुद्ध चैतन्य
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