साम्प्रदायिकता और जातिवाद: भारत के विनाश का आह्वान

कभी सोवियत संघ नामक एक विशाल राष्ट्र हुआ करता था, जो अपनी ताकत और एकता के लिए जाना जाता था। भारत की तरह ही वह भी विविधताओं से भरा था। लेकिन फिर विदेशी ताकतों, खासकर सीआईए ने अपने षड्यंत्र रचे और यह महाशक्ति टुकड़ों में बिखर गई। आज रूस के सामने चेचन्या जैसे क्षेत्रों को संभालने की चुनौती है, जहां अलगाववादी आंदोलन बार-बार सिर उठाते हैं। क्या यह संयोग है कि शक्तिशाली देशों का पतन अक्सर बाहरी हस्तक्षेप और आंतरिक विभाजन से शुरू होता है?

इसी तरह, इराक, लीबिया और लेबनान कभी समृद्धि के प्रतीक थे। इराक की मेसोपोटामिया सभ्यता और तेल की संपदा, लीबिया का स्थिर शासन और लेबनान का “मध्य पूर्व का पेरिस” कहलाना—ये सब इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। लेकिन बाहरी ताकतों की साजिशों और आंतरिक साम्प्रदायिकता ने इन देशों को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया। आज इराक में आतंकवाद, लीबिया में अराजकता और लेबनान में आर्थिक संकट ने इनकी पहचान मिटा दी। क्या भारत भी इसी राह पर नहीं चल रहा?
जर्मनी की कहानी भी कम दुखद नहीं। 20वीं सदी की शुरुआत में यह देश विज्ञान, कला और अर्थव्यवस्था में अग्रणी था। फिर आया हिटलर, जिसने नाजी विचारधारा के तहत नस्लीय और साम्प्रदायिक घृणा का जहर फैलाया।
और परिणाम क्या हुआ ?
द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी की बर्बादी और लाखों लोगों की मौत।
भारत का नंबर कब?
अब भारत की बारी है। पिछले दस वर्षों में देश में साम्प्रदायिक और जातिवादी ताकतों ने ऐसा बारूद बिछाया है कि एक छोटी सी चिंगारी भी भयंकर आग भड़का सकती है। याद कीजिए, 2002 का गुजरात दंगा, 2020 का दिल्ली दंगा, या हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश और मणिपुर में हुई हिंसा। इन घटनाओं में सैकड़ों निर्दोष मारे गए, हजारों परिवार बेघर हुए। साम्प्रदायिक तत्व आए दिन मस्जिदों पर दावे, मंदिरों के लिए उन्माद, या जातिगत हिंसा को हवा देते हैं। क्या यह सब संकेत नहीं दे रहा कि हमारा देश भी सीरिया, श्रीलंका और बांग्लादेश की राह पर चल पड़ा है?
सीरिया में गृहयुद्ध ने एक समृद्ध देश को खंडहर में बदल दिया। श्रीलंका में तमिल-सिंहली संघर्ष ने अर्थव्यवस्था और समाज को चोट पहुंचाई। बांग्लादेश में धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक अस्थिरता ने विकास को ठप कर दिया। ये देश कभी शांत और समृद्ध थे, लेकिन साम्प्रदायिकता और जातिवाद ने इन्हें बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया। भारत में भी यही खेल खेला जा रहा है।

इतिहास हमें सिखाता है कि घृणा, ईर्ष्या, द्वेष और भेदभाव किसी भी देश को कितनी आसानी से नष्ट कर सकते हैं, लेकिन हमने इतिहास से कभी कुछ सीखने समझने का प्रयास नहीं किया।
मौन जनता और विनाश के कगार पर भारत
कहते हैं, “विनाशकाले विपरीत बुद्धि।” जब विनाश का समय नजदीक आता है, लोगों की सोच कुंद हो जाती है। महाभारत में हस्तिनापुर का पतन एक महत्वपूर्ण शिक्षाप्रद उदाहरण है। श्रीकृष्ण और भीष्म जैसे महान योद्धा भी उस विनाश को नहीं रोक सके, क्योंकि समाज मौन तमाशबीन बना रहा। आज भारत की जनता भी वही कर रही है। सोशल मीडिया पर भड़काऊ भाषण, टीवी पर नफरत भरे डिबेट, और सड़कों पर हिंसा—यह सब जनता के लिए मनोरंजन बन गया है। देश की जनता अपनी ही बर्बादी का तमाशा देखने में व्यस्त हैं।
सच्चाई बोलना देशद्रोह, झूठ फैलाना देशभक्ति

आज भारत की स्थिति यह है कि सच बोलना देशद्रोह बन गया है। पत्रकारों को जेल में डाला जा रहा है, सच दिखाने वालों को दबाया जा रहा है, और निर्दोषों को सजा दी जा रही है। दूसरी ओर, झूठे जुमले, भड़काऊ भाषण और नफरत फैलाना देशभक्ति का पर्याय बन गया है। यह वही लक्षण हैं, जो किसी भी देश के पतन से पहले दिखाई देते हैं। जब सत्ता सच को कुचलने लगे और जनता चुप रहे, तो विनाश को कोई नहीं रोक सकता।
निष्कर्ष: अभी भी वक्त है, जागिए !!!

सारांश यह है कि इतिहास इसका साक्षी है; साम्प्रदायिकता और जातिवाद का जहर किसी परिवार, समाज या देश को आसानी से तबाह कर सकता है। । लेकिन भारत के पास अभी भी वक्त है। हमें उन उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मजबूत करना होगा, जो हमारी ताकत रहे हैं। अगर हम अभी नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। यह लेख सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि एक आह्वान है—जागिए, वरना हस्तिनापुर की तरह भारत भी इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा।
~ विशुद्ध चैतन्य
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