मेरी वेदना मेरी आवाज़ है मेरी लेखनी

माना कि मेरे लेख मेन स्ट्रीम मीडिया की चकाचौंध से दूर रहते हैं। माना कि इन शब्दों से किसी के मन में कोई उथल-पुथल नहीं मचती, न कोई क्रांति जन्म लेती है, न ही कोई बड़ा बदलाव आता है। फिर भी, मैं लिखता हूं। क्यों? क्योंकि लिखना मेरा काम नहीं, मेरी सांस है। जैसे जंगल में खिले वो अनदेखे फूल, जो बिना किसी तारीफ या पहचान के खिलते हैं और बिखर जाते हैं। न कोई उन्हें गुलदस्ते में सजाता है, न मंदिर की चौखट पर चढ़ाता है। क्या उनका खिलना व्यर्थ है? शायद नहीं। वे बस अपने होने का सबूत देते हैं।
लिखते समय मेरे भीतर एक अजीब-सी ऊर्जा जागती है। कभी खीज बनकर, कभी टीस बनकर। कभी पश्चाताप का कांटा चुभता है, तो कभी अपराधबोध का बोझ दबाता है। ये सारी भावनाएं मेरे लिए वो दर्पण हैं, जो मुझे आत्मचिंतन की राह दिखाते हैं। ये घाव हैं, जो हर बार चीख-चीखकर कहते हैं— “तू अभी ज़िंदा है, मुर्दा नहीं हुआ।”
अप्रत्याशित जवाब और असहज सच्चाई
आपने मेरे उत्तरों को पढ़ा और चौंक गए। स्वाभाविक है। मेरा उत्तर वैसा नहीं था, जैसा अपेक्षा होती है पारम्परिक साधु-संन्यासियों से। हम सबके मन में एक छवि बनी हुई है कि साधु-संत कैसे होने चाहिए। किताबों में पढ़ा, फिल्मों और सीरियल्स में देखा—शांत, गंभीर, उपदेशक। लेकिन मैं उस ढांचे में फिट नहीं होता। ना तो मैं किताबी साधु हूं, न परंपराओं का पुतला। तो आपका असहज होना स्वाभाविक है।
मैं वन्य प्राणी की तरह हूं—अपने अंदाज़ में जीता हूं, अपनी शर्तों पर। जंगल का कोई जानवर दूसरों की मान्यताओं से बंधा नहीं होता। उसकी दुनिया उसकी अपनी होती है। मेरी भी वही कहानी है। पारंपरिक साधु-संत समाज में आपको आसानी से मिल जाएंगे। आजकल तो सरकारें भी पर्यटकों के लिए शुल्क लेकर उन्हें प्रदर्शनी की तरह पेश करती हैं। लेकिन मैं? मैं उस भीड़ का हिस्सा नहीं। मैं मौलिक हूं—अपनी तरह का इकलौता। न मैं किसी की नकल करता हूं, न कोई मेरी तरह बन सकता है।
मेरी लेखनी में झलकती पीड़ा
लोग कहते हैं कि मैं बेबाक और बिंदास लिखता हूं। सुनने में अच्छा लगता है, पर सच इससे कहीं गहरा है। मेरे हर शब्द में मेरी टीस है, मेरी वेदना है। ये लेख महज शब्दों का खेल नहीं, बल्कि उस घायल प्राणी की कराह हैं, जो जंगल में अपनी पीड़ा से तड़प रहा हो। उसकी चीखें हवा में गूंजती हैं, पर दूर कहीं कोई उनसे प्रभावित नहीं होता। मेरे लेख भी कुछ ऐसे ही हैं—एक कराह, एक पुकार, जो शायद किसी तक पहुंचती ही नहीं।
मैं वो पारंपरिक साधु नहीं, जो शांत मुस्कान के साथ उपदेश दे। मैं वो दुखी प्राणी हूं, जो समाज की बर्बादी, प्रकृति के विनाश, और प्राणी जगत की पीड़ा को देखकर चीख रहा है। मेरे शब्द मेरे दर्द का आईना हैं।
उदाहरण जो मेरे होने को साबित करते हैं
सोचिए, हिमालय के उन दुर्गम जंगलों में खिले फूलों की तरह, जिन्हें कोई नहीं देखता। या फिर उस पक्षी की तरह, जो सुबह की पहली किरण के साथ चहचहाता है, पर उसकी आवाज़ शहर के शोर में दब जाती है। क्या इनका वजूद बेकार है? नहीं। ये बस अपने होने का प्रमाण देते हैं। मेरी लेखनी भी कुछ ऐसी ही है—शायद प्रभाव न डाले, पर मेरे जीवित होने का सबूत तो देती है।
एक बार कबीर ने कहा था, “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।” मैं भी किताबी ज्ञान का ढोंग नहीं करता। मेरे लिए सच्चाई मेरी अपनी अनुभूति है, मेरी अपनी पीड़ा है।
अंत में
तो हां, मैं लिखता हूं। न क्रांति के लिए, न बदलाव के लिए—बस इसलिए कि लिखना मेरा स्वभाव है। जैसे जंगल का वो फूल बिना किसी अपेक्षा के खिलता है, वैसे ही मेरे शब्द मेरे भीतर से उगते हैं। अगर कोई पढ़े, समझे, तो ठीक। न पढ़े, तो भी ठीक। क्योंकि मैं वही हूं जो हूं— विशुद्ध चैतन्य।
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