समाज: एक प्रायोजित छलावा

जब विद्वान मुझसे पूछते हैं—”क्या उखाड़ लिया अब तक के जीवन में? समाज और देश के लिए क्या किया? कितनों को बदला, कितनों को सुधारा? माँ-बाप के लिए क्या दिया?”—तो मेरे सामने वह रात कौंध जाती है। वह सर्द रात, जब मैं भूख से बिलखता सड़क पर पड़ा था, ठंड से ठिठुरता हुआ, और समाज की चमचमाती गाड़ियाँ मुझसे आँखें चुराकर निकल गई थीं। मैं उनसे कहना चाहता हूँ—पहले यह समझ लो कि यह ‘समाज’ एक भ्रम है, एक खोखला ढोंग, जितना झूठा है सरकार, मंदिर-मस्जिद, और मानव-निर्मित ईश्वर-अल्लाह। ये सब मानसिक संरचनाएँ हैं—सुविधा के लिए गढ़ी गईं, और मौका मिलते ही तोड़ दी जाने वाली। इनका कोई सच नहीं, सिवाय इसके कि हम इन्हें सच मान लें।
महामारी की सच्चाई और समाज का कुरूप चेहरा
महामारी के उन काले दिनों को याद करो। माँएँ अपनी गोद में बच्चों की लाशों को लिए बिलख रही थीं, बूढ़े माता-पिता साँस के लिए सड़कों पर तड़प रहे थे। और तब यह तथाकथित समाज कहाँ था? इसके ठेकेदार अपने सुनहरे महलों में दुबक गए थे, अपने बिलों में छिपकर तमाशा देख रहे थे। वही समाज, जो अपने ही शोषितों की चीखें सुनने को तैयार नहीं था, वह मौका मिलते ही ईशनिंदा के नाम पर किसी कमजोर को घेर लेता है। मॉब लिंचिंग, तोड़फोड़, आगजनी, लूटपाट—यह सब उसकी शान है। और फिर भी लोग कहते हैं—”ईश्वर सब देखता है!” कितना हास्यास्पद है यह झूठ, कितनी क्रूर है यह सांत्वना!
मंदिरों के सोने और भिखारी की भूख
आप ही बताइए—जब करोड़ों की भीड़ वाला यह समाज अपनी ही औलाद को भूख से मरते देख मुँह फेर लेता है, जब मंदिरों में सोने के सिंहासन पर बैठे देवता और अरबों का चढ़ावा लेने वाले तीर्थ एक भिखारी की दरिद्रता नहीं मिटा पाते, तो मैं क्या कर सकता हूँ ?
मैं—एक टूटा-फूटा, थका-हारा इंसान—इस विशाल ढोंग को कैसे ठीक कर सकता हूँ ? और जब आप जैसे दानी लोग दान भी एहसान की तरह देते हैं, तो वह शख्स, जो एहसान के बोझ तले दबा है, वह क्या करेगा?
वह समाज की सेवा नहीं कर सकता। वह बस गुलामी करेगा, कोल्हू के बैल की तरह जीवन भर खटेगा, और अंत में मिट्टी में मिल जाएगा।
मैं कौन हूँ?
ना तो मैं किसी का नौकर हूँ, न गुलाम, न ही इस समाज का कोल्हू का बैल। ओशो ने कहा था—”ग़म नहीं यदि जमाना मुझे समझ न सका। मैं फुर्सत की चीज हूँ और जमाना जल्दबाजी में है।” मैं भी यही मानता हूँ। अब कोई जल्दबाजी नहीं कि यह अंधा समाज मुझे समझे। और समझ भी ले, तो क्या? बुद्ध से ओशो तक, अनगिनत गुरुओं को पूजने वाली यह दुनिया आज भी भेड़चाल में चल रही है—वही भेड़चाल, जो माफियाओं और लुटेरों ने बनाई। उनके विचार किताबों में सज गए, पंथ बन गए, राजनीति बन गए, दंगे बन गए। पर क्या बदला? कुछ भी तो नहीं।
नवीनता का भ्रम और मेरा संकल्प
लोग कहते हैं—”कुछ नया खोजो!” पर मैं पूछता हूँ—बुद्ध और ओशो ने जो खोजा, उसका क्या हुआ? उनके विचारों पर किताबें लिखी गईं, लाइब्रेरी में धूल खा रही हैं। उनके नाम पर मजहब गढ़े गए, सत्ता हथियाई गई, खून बहाया गया। पर आम इंसान? वह तब भी भेड़ था, आज भी भेड़ है, और शायद अनंतकाल तक भेड़ ही रहेगा।
तो क्या मैं हार मान लूँ? नहीं। मैं आवाज उठाता रहूँगा अपनी थकी हुई आवाज से, लिखता रहूँगा अपनी टूटी हुई कलम से—इस अंधे समाज को जगाने के लिए। भले ही यह भेड़चाल में चल रही भीड़ मुझे न सुन सके, भले ही मेरे शब्द हवा में खो जाएँ, पर मैं रुकूँगा नहीं। बुद्ध और ओशो की तरह, मैं भी अपनी मशाल जलाए रखूँगा—नन्ही ही सही, पर सच्ची।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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