भेड़ों का संगठन: एक कटु सत्य

कई हजार वर्ष पुरानी बात है। एक घने जंगल में असंख्य भेड़ें निवास करती थीं। इस जंगल में सिंह, चीता, तेंदुआ, भेड़िया और लकड़बग्घे जैसे खूंखार शिकारी भी थे, जो इन भेड़ों को अपना आहार बनाते थे।
एक दिन चुनमुन परदेसी नामक एक चतुर बंदर ने भेड़ों की सभा बुलाई और उन्हें सुझाव दिया—”यदि तुम सभी संगठन, समाज या समुदाय का गठन कर लो, तो तुम्हारी शक्ति बढ़ जाएगी और कोई भी तुम्हारा शिकार नहीं कर पाएगा।”
भेड़ों को यह बात जंच गई और उन्होंने चुनमुन परदेसी को ही इस कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी। चुनमुन ने गहन विचार-विमर्श के बाद दो संगठन बनाए—’काली भेड़ समाज’ और ‘सफेद भेड़ समाज’। भेड़ें हर्षित थीं। शीघ्र ही इन संगठनों के मुखिया, सचिव और कोषाध्यक्ष भी नियुक्त कर दिए गए।
संपूर्ण जंगल में भेड़ों के संगठनों की चर्चा फैल गई। यह देख सिंह ने अपने दरबार में आपातकालीन सभा बुलाई और चिंतित स्वर में कहा—”यदि भेड़ें संगठित हो गईं, तो हम भूखे मर जाएंगे!”
सभा में उपस्थित जिओशाह बेगम, जो सिंह की विशेष सलाहकार थीं, मुस्कुराईं और बोलीं—”महाराज, यह तो अत्यंत शुभ समाचार है कि उन्होंने अपने संगठन बना लिए हैं। आइए, हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि उनके संगठन दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति करें।”
सभा में उपस्थित सभी पशु अचंभित रह गए और एक स्वर में बोले—”यह कैसी विचित्र बात कह रही हैं आप? यदि भेड़ों का समाज समृद्ध हुआ, तो हमारा क्या होगा? उल्टे वे संगठित होकर हम पर भारी पड़ेंगे!”
जिओशाह बेगम मंद मुस्कान के साथ बोलीं—”इतिहास उठाकर देख लीजिए, मानव सभ्यता का अध्ययन कीजिए। संसार के सबसे बड़े संगठन, समाज और संप्रदाय देखिए। क्या वे अपने सदस्यों की सहायता कर पाए? क्या वे अपने शोषित और पीड़ित अनुयायियों की रक्षा कर पाए? क्या वे अपने देश को लुटेरों और अपराधियों से बचा पाए? नहीं!”
सभा में सन्नाटा छा गया। जिओशाह बेगम ने अपनी बात जारी रखी—”मनुष्य हो या भेड़ें, दोनों में कोई अंतर नहीं। वे चाहे जितने भी बड़े संगठन बना लें, वे अंततः भेड़ ही रहेंगे। सदैव स्मरण रखें—जो अकेले या छोटे समूह में रहते हैं, वे अधिक बुद्धिमान और खतरनाक होते हैं। जबकि बड़े झुंडों में रहने वाले सदा भेड़चाल में चलते हैं। उन्हें जाति, वर्ग, संप्रदाय, राजनीति के नाम पर बांटना सरल होता है। उन्हें आपस में लड़ा देना और फिर उनकी लाशों पर अपना राजपाठ चलाना सहज हो जाता है।”
अब सभी शिकारी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। जिओशाह बेगम ने गहरी सांस ली और आगे कहा—”पहले हमें शिकार के लिए दौड़ना पड़ता था, जिससे हमारी जान को भी खतरा रहता था। किंतु अब हमें अपनी जान जोखिम में डालने की आवश्यकता नहीं। हमें केवल प्रतिदिन पाँच-पाँच किलो चारे की व्यवस्था करनी होगी, और भेड़ों का समाज स्वयं हमारे सामने सिर झुकाए खड़ा मिलेगा।”
सभा में सभी शिकारियों की आँखों में चमक आ गई। जिओशाह बेगम ने अंतिम चोट की—”यदि आपको मेरी बातों पर संदेह हो, तो जरा मनुष्यों की दुनिया में जाकर देखिए। पाँच किलो राशन के लिए वे अपना ईमान, आत्मसम्मान और यहाँ तक कि अपने शरीर तक को गिरवी रख देते हैं। वे अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों की भक्ति में डूबे रहते हैं। वे एक-दूसरे से लड़ते हैं, एक-दूसरे को मारते हैं… और उनके शवों पर उनके स्वघोषित नेता रोटियाँ सेंकते हैं, उनकी कब्रों पर उत्सव मनाते हैं!”
अब कोई संदेह नहीं बचा था। जंगल के सभी शिकारी मुस्कुराए और सभा विसर्जित हो गई। बाहर, भेड़ों का संगठन अपने विस्तार की खुशी में झूम रहा था।
कथा सार:
अब यदि आप इस कहानी पर गहराई से विचार करें, तो आपको यह समझ में आएगा कि संगठन का अर्थ केवल संख्या बढ़ाना नहीं होता, बल्कि सही दिशा में संगठित होना ही असली शक्ति है। यदि कोई समाज बिना समझदारी और जागरूकता के केवल भीड़ का हिस्सा बन जाता है, तो वह अपने शोषण का मार्ग स्वयं प्रशस्त कर देता है।
इसलिए, मैं आपसे कहना चाहूँगा कि अंधभक्ति और भेड़चाल से बचें। संगठन और समुदाय तभी प्रभावी होते हैं, जब वे अपने सदस्यों की वास्तविक भलाई और सुरक्षा के लिए कार्य करें। हमें यह समझना होगा कि असली ताकत भीड़ में नहीं, बल्कि सोचने-समझने और आत्मनिर्भर बनने में होती है। वरना हम भी उन भेड़ों की तरह होंगे, जो संगठन में होकर भी हमेशा शिकार ही बनी रहीं।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
