डिजिटल युग में मनुष्यता की खोज: निजता की परतों में छुपा अंधकार

यह उन दिनों की बात है, जब “प्रेस कार्ड” होना किसी गौरवचिह्न से कम नहीं था। यह सिर्फ एक पहचान पत्र नहीं, बल्कि एक भरोसे की मुहर हुआ करता था—एक ऐसा प्रमाण, जो समाज में आपको एक ज़िम्मेदार, सत्यनिष्ठ और विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर देता था। यह सम्मान उस समय के आधारकार्ड, राशनकार्ड या पासपोर्ट से कहीं अधिक था।
मुझे याद है जब पहली बार एक समाचार चैनल में नौकरी मिली थी। तमाम जांच-पड़ताल, सत्यापन और प्रशासनिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद जब मुझे वह बहुप्रतीक्षित प्रेस कार्ड मिला, तो वह क्षण किसी सैन्य पदवी प्राप्त करने जैसा अनुभव था। चैनल के मुख्य द्वार पर डिजिटल स्कैनर में कार्ड दिखाकर प्रवेश करना, ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी अत्याधुनिक प्रयोगशाला का हिस्सा बन गए हों।
लेकिन तब किसी ने नहीं कहा था कि – “यह डिजिटल पहचान एक दिन तुम्हें गुलाम बना देगी!”
न ही किसी ने चेताया था कि – “अपनी निजी जानकारियाँ साझा करने से बचो, नहीं तो एक दिन यही तुम्हारे लिए संकट बन जाएंगी!”
इसके पश्चात् जब पहली बार आधार कार्ड बनवाया, तब भी कोई शंका नहीं हुई।
फिर तो सिलसिला चल निकला—मोबाइल सिम से लेकर बैंक खातों तक, हर जगह आधार माँगा जाने लगा।
यहाँ तक कि फेसबुक जैसी विदेशी कंपनियों ने भी पहचान के नाम पर पासपोर्ट की प्रतियाँ माँगनी शुरू कर दीं, और मजबूरीवश हमें वह भी उन्हें देनी पड़ी। कारण?
क्योंकि अगर नहीं देते, तो कोई भी भावनात्मक रूप से आहत सरफिरा आपकी प्रोफ़ाइल रिपोर्ट करके उसे सस्पेंड करवा सकता था।
ना सरकार ने चिंता की हमारी निजता की,
ना न्यायपालिका ने दी समय रहते चेतावनी।
और जब वर्षों बाद सुप्रीम कोर्ट को होश आया, तब जाकर कहा गया कि “निजी कंपनियाँ आधार कार्ड की माँग नहीं कर सकतीं!”
तब तक तो हमारे व्यक्तिगत विवरण न केवल लीक हो चुके थे, बल्कि बेचे और इस्तेमाल भी किए जा चुके थे।
अब वही लोग, जो वर्षों तक इस निजता की हत्या में मौन भागीदार बने रहे, आज सोशल मीडिया पर ऊँची आवाज़ में चिल्ला रहे हैं—
“अपनी फोटो AI को मत दो!”
“पर्सनल डिटेल्स शेयर मत करो!”
यह सब देखकर हँसी आती है…
क्योंकि आज, जब आपकी पूरी डिजिटल परछाईं बड़ी-बड़ी कम्पनियों के सर्वरों में संग्रहित है, तब ये बातें कितनी बेमानी लगती हैं।
क्या आप जानते हैं?
आज का थानेदार भी धारा 144 लगा सकता है।
किसी को भी बिना अदालत की अनुमति के 90 दिनों तक हिरासत में रख सकता है।
यह जानकारी अधिकांश लोगों को नहीं है, और जिन्हें है भी, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्यों?
क्योंकि सभी अपने-अपने हिस्से का “चारा” चुगने में व्यस्त हैं।
लोकतंत्र, अधिकार और नैतिकता जैसी बातें केवल भाषणों और मंचों तक सीमित रह गई हैं।
लेकिन कुछ हम जैसे लोग भी हैं…
जिन्हें अब भी फर्क पड़ता है।
क्योंकि हम जानते हैं कि जब तक सच बोलने वाले लोग ज़िंदा हैं, तब तक झूठों की नींव डोलती रहेगी।
हमने कभी अपनी पहचान छुपाने की कोशिश नहीं की।
क्योंकि हमें पता है—हमारी सारी जानकारी पहले ही उन तक पहुँच चुकी है, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा “ज़रूरत” है।
हो सकता है, कल हम इस मंच से भी “गायब” कर दिए जाएँ।
पर यह तय है—इस समाज की आंख तब भी नहीं खुलेगी।
लोग फिर भी मस्त रहेंगे—अपने-अपने छोटे-छोटे लालचों और भ्रमों में।
उदाहरण के लिए :
- 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “आधार का उपयोग केवल सरकारी योजनाओं तक सीमित किया जाना चाहिए”, पर तब तक करोड़ों लोगों की डिटेल्स निजी कंपनियों के पास पहुँच चुकी थीं।
- फेसबुक–कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल (2018) इसका बड़ा उदाहरण है, जिसमें लाखों भारतीय यूज़र्स की जानकारी चुनावी रणनीतियों में प्रयोग हुई।
- 2021 में एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रत्येक व्यक्ति के औसतन 3000 डिजिटल ट्रैकिंग प्वाइंट्स कंपनियों द्वारा संग्रहित किए जा चुके थे।
सवाल यह नहीं है कि क्या हमारी निजता सुरक्षित है…
सवाल यह है कि क्या अब हम इतना भी जागरूक हैं कि सच्चाई को पहचान सकें…?
शृंखला के अगले संस्करण “डिजिटल गुलामी: सुविधा की कीमत” की प्रतीक्षा करें। यदि आप चाहते हैं कि प्रकाशित होते ही आपको सूचना मिले, तो सबस्क्राइब करना ना भूलें।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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