प्रेम, व्यापार और भीड़ का समाज: एक आत्ममंथन

जब किसी समाज में प्रेम का आधार ‘पैसा’ और ‘व्यापार’ बन जाए, जब मानवीय संबंधों का मूल्य धन और पद से आंका जाने लगे, तब वहाँ प्रेम और इंसानियत की बातें करना स्वयं एक विडम्बना बन जाती है।
आज कुछ स्वयंभू इस्लाम-विशेषज्ञ, जो वास्तव में कट्टर हिन्दू मानसिकता से ग्रस्त हैं, यह प्रचार कर रहे हैं कि कश्मीरी मुसलमानों का हिंदुओं के प्रति प्रेम केवल दिखावा है — क्योंकि उन्होंने इस्लामिक ग्रंथों से ऐसे अंश खोज निकाले हैं जो गैर-इस्लामिकों के विरुद्ध हिंसा को जायज़ ठहराते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्होंने ये ग्रंथ प्रेम, समरसता या आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए नहीं, बल्कि नफ़रत का खाद-पानी तैयार करने के उद्देश्य से पढ़े हैं।
वे कहते हैं कि जो कश्मीरी लोग आतंकी घटनाओं पर दुःख प्रकट कर रहे हैं, वे केवल पर्यटन और व्यापार के नुकसान की चिंता में ऐसा कर रहे हैं। उनका यह दावा वैसा ही है जैसे राजनीतिज्ञ पुलवामा या पहलगाम की घटनाओं पर घड़ियाली आँसू बहाते हैं — केवल अपना चेहरा बचाने और वोटों की खेती करने के लिए।
मान लेते हैं आपकी बात। लेकिन एक प्रश्न आपके लिए भी है —
क्या आपने कभी अपने ही घर, अपने ही समाज, अपने ही धर्म की परछाइयों में झाँक कर देखा है?
क्या वहाँ प्रेम है?
क्या वहाँ करुणा है?
क्या वहाँ मनुष्यता अभी शेष है?
आज विवाह एक सौदा बन गया है — दहेज, बैंक बैलेंस, पद और जाति देखकर जोड़े बनते हैं और फिर उस मिलन को ‘ईश्वर की जोड़ी’ कहा जाता है।
सरकारी तंत्र से धन पाने वाले लोग अपने ही देशवासियों को सरकारी आदेशों पर लूटने में लगे हैं।
आदिवासियों के शोषण और हत्या पर कोई आवाज़ नहीं उठाता, लेकिन यदि वे आत्मरक्षा में शस्त्र उठाएँ, तो उन्हें नक्सली घोषित कर दिया जाता है।
और यही नहीं, हिन्दू धर्म के नाम पर भी आये दिन किसी न किसी को जातीय या धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किया जाता है। लेकिन कभी कोई यह नहीं कहता कि “हिन्दू भी आतंकवादी हो सकता है।”
दरअसल, हमारा समाज अब एक ऐसी भीड़ में परिवर्तित हो चुका है — जो केवल अपने निजी स्वार्थों के कारण एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इस भीड़ को कुछ मुट्ठीभर लोग — सत्ता, व्यापार और धर्म के नाम पर — नियंत्रित करते हैं, लड़वाते हैं, और फिर उनके दुःख-दर्द को अपने राजनीतिक और आर्थिक लाभ का साधन बना लेते हैं।
क्या यही हमारा भारत है? क्या यही वह धर्मभूमि है, जो विश्व को “वसुधैव कुटुम्बकम्” का संदेश देती थी ?
यदि कभी हम इस भ्रम-जाल से बाहर निकल सकें —
तो हो सकता है विवाह फिर से प्रेम पर आधारित हो।
हो सकता है मित्रता फिर से आत्मीयता पर आधारित हो।
हो सकता है कोई सच्चा समाज फिर से जन्म ले —
जहाँ संबंधों की नींव व्यापार नहीं, भावना हो।
लेकिन अभी… हर दिशा में व्यापार है।
हर संबंध एक सौदा है।
ऐसे में कश्मीरियों की नीयत पर शक करने से पहले
अपने ही अंतरतम में झाँक लेना अधिक उचित होगा।
मैंने स्वयं को इस भीड़ से अलग कर लिया है।
अब मैं वह नहीं रहा जो इस वैश्यों और गुलामों के समाज में सम्मान का पात्र हो।
अब मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करता जिससे इस प्रणाली के गुलामों से मुझे कोई मान्यता मिले।
क्योंकि अब मेरा लक्ष्य है — उस सत्य जगत की ओर लौटना
जो कभी इस देश की आत्मा थी,
जो कभी हमारी संस्कृति थी —
स्वतंत्र, निष्कलुष और प्रेम से पूर्ण।
शायद ऐसी कोई दुनिया वास्तव में कभी थी या नहीं —
मैं नहीं जानता।
लेकिन मेरी आत्मा कहती है कि वह दुनिया कहीं न कहीं है,
और एक न एक दिन मैं वहाँ पहुँच ही जाऊँगा —
इस जन्म में नहीं, तो किसी अगले जन्म में।
किन्तु अभी… मैं उदास हूँ।
क्योंकि अभी मैं उस दुनिया में नहीं हूँ जिसकी कल्पना मैंने बचपन से की है।
अभी मुझे वैसे लोग नहीं मिले हैं,
जैसे लोग मेरे बालमन की कल्पना में थे।
“जीवन में दो चीजें कभी जबरन नहीं मिलतीं: सच्चा प्रेम और सच्ची मित्रता।
ये अपने आप, सहजता से, बिना किसी प्रयास के आपके जीवन में आते हैं।
जिन्हें साबित करना पड़े — वे प्रेमी नहीं होते।
जिन्हें मनाना पड़े — वे सच्चे मित्र नहीं होते।
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ संघर्ष नहीं होता — वहाँ शांति होती है।”
~ विशुद्ध चैतन्य
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