युद्ध : एक घिनौना व्यापार

मैं युद्ध का घोर विरोधी हूँ — चाहे वह पड़ोसी देशों के बीच हो, किसी राष्ट्र के भीतर गृहयुद्ध के रूप में हो, या सम्पूर्ण विश्व को अपनी चपेट में लेने वाला महायुद्ध हो। क्योंकि युद्धों से लाभ केवल कुछ मुट्ठीभर पूँजीपतियों, सत्ता के दलालों और शस्त्र व्यापारियों को ही प्राप्त होता है। न तो नगरों में बसने वाले सामान्य नागरिकों को इससे कोई लाभ होता है, न ही गाँवों में रहने वाले श्रमिकों और कृषकों को। यहाँ तक कि हमारे वन्यजीवों और प्रकृति के भीषण दोहन का मार्ग भी युद्ध के माध्यम से प्रशस्त होता है।
किन्तु विडम्बना यह है कि जब युद्ध के बादल घिरते हैं, तो मूर्खता का ऐसा नंगा नृत्य आरम्भ होता है, जिसे देख कर विवेक शोक में डूब जाता है। युद्ध की संभावनाओं से कुछ लोग इस प्रकार उल्लसित हो उठते हैं मानो कोई क्रिकेट का विश्वकप आ गया हो। घर-घर में देशभक्ति के खोखले गीत गूँजने लगते हैं; वे घर भी पीछे नहीं रहते जो शेष वर्षभर साम्प्रदायिक विष वमन करने, समाज को बाँटने और नफरत की खेती करने में व्यस्त रहते हैं।
इनका उद्देश्य स्पष्ट है — देश को साम्प्रदायिक घृणा की आग में झोंककर अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकना। दुर्भाग्यवश, यह भी कटु सत्य है कि मेरे जैसे कुछ लोगों के युद्ध-विरोधी स्वर भी इस सुनियोजित उन्माद को रोकने में असमर्थ हैं। युद्ध होगा, और न केवल युद्ध होगा अपितु एक महाविनाशक युद्ध होगा, जिसमें करोड़ों नहीं, सम्भवतः सात अरब से भी अधिक जीवन समाप्त हो सकते हैं।
ईश्वर भी अब थक चुका है इस घृणा और वैमनस्य से ग्रस्त मानवता को देख-देखकर। ऐसे लोग न स्वयं सुख से जी सकते हैं, न ही किसी अन्य को सुखपूर्वक जीने देना चाहते हैं। इनकी चेतना का मूल स्वरूप ही अराजकता है।
यह स्मरणीय है कि जो व्यक्ति घृणा और साम्प्रदायिक द्वेष से ग्रसित हैं, उनका धर्म से कोई संबंध नहीं होता। वे न तो स्वयं धार्मिक हो सकते हैं, न ही अपने समाज को धार्मिक बना सकते हैं। वे सदा अधर्म के पोषक और अधर्मी शक्तियों के सहायक होते हैं।
श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा था —
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदाऽअत्मानं सृजाम्यहम्।”
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
आज पुनः वही समय आ गया है, जब धर्म के सच्चे स्वरूप की रक्षा हेतु चेतना का जागरण अत्यन्त आवश्यक है। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं; युद्ध तो केवल समस्या की पराकाष्ठा है।
युद्ध एक अत्यन्त घृणित व्यापार है, जो मुद्रा, पूँजी और वाणिज्य के गठजोड़ से संचालित होता है। विशेषतः शस्त्र उद्योग के लिए युद्ध एक ऐसा महोत्सव है, जिससे अकूत धन अर्जित किया जाता है।
आइये, हम सब मिलकर इस विकृत मानसिकता का विरोध करें और शांति, प्रेम तथा सत्य के मार्ग पर अग्रसर हों। यही सच्ची देशभक्ति है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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