धर्म, राजनीति और भीड़तंत्र के दड़बों से मुक्ति का समय

हाल ही में एक समाचार पढ़ने को मिला — पहलगाम आतंकी हमले से आहत मुस्लिम युवती ने इस्लाम धर्म छोड़ा
एक युवती ने, जो पहले इस्लाम धर्म से जुड़ी थी, आतंकवाद से आहत होकर न केवल इस धर्म का त्याग किया, बल्कि सनातन धर्म को अपनाया। उसका कहना है कि आज इस्लाम धर्म आतंक का पर्याय बन चुका है। यह घटना सिर्फ एक धर्म परिवर्तन की नहीं, बल्कि एक गहन अंतर्मन की पुकार है — उस भीड़ से बाहर आने की जिसे हम धर्म, राजनीति या विचारधाराओं के नाम पर पालते आ रहे हैं।
लेकिन प्रश्न ये है कि…
अगर किसी ने इस्लाम त्यागा — तो क्या उसने गलत किया?
अगर किसी ने हिन्दुत्व या सनातन परंपरा को त्यागा — तो क्या वह भी दोषी ठहराया जाएगा?
अगर किसी ने भाजपा, कांग्रेस या वामपंथ का परित्याग किया — तो क्या वह देशद्रोही कहलाएगा?
नहीं। मेरी दृष्टि में यह सब व्यक्तिगत चेतना के जागरण के संकेत हैं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी संकीर्ण विचारधारा, धार्मिक गिरोह या राजनीतिक भीड़ से ऊपर उठता है — तब वह पहली बार स्वतंत्रता का स्वाद चखता है।
आज धर्म और राजनीति के नाम पर बने ये दड़बे, इनका मूल उद्देश्य भूल चुके हैं। ये न तो गरीब का भला करते हैं, न पीड़ित का, न ही देश की आत्मा का। ये दड़बे अब केवल सत्ता, दंगे, और समाज को बांटने के उपकरण बन चुके हैं।
क्या धर्म का त्याग पाप है? नहीं।
जब धर्म सहयोग से हटकर शोषण का माध्यम बन जाए, जब राजनीति सेवा से हटकर साजिश का अड्डा बन जाए, जब संगठन संरक्षक से हटकर सांप्रदायिक व्यापार बन जाए —
तो उस दड़बे से बाहर आना ही सच्चा धर्म है।
कुछ समय पहले एक अंतरराष्ट्रीय लेखक सिद्धार्थ तबिश का लेख पढ़ा, जिसमें बताया गया था कि कई देशों में इस्लाम धर्म त्यागने वालों की संख्या 70% तक पहुंच चुकी है। कई यूरोपीय देशों में चर्च अब पुस्तकालय या बियर बार बन चुके हैं। और यह सब गलत नहीं है। यह उस चेतना का संकेत है जो मनुष्य को संप्रदायों की गुलामी से निकालकर आत्मचिंतन की ओर ले जाती है।
आज जरूरत है धर्म की पुनर्परिभाषा की — जो जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
राजनीति की पुनर्संरचना की — जो सेवा करे, सत्ता का दलाल न बने।
और समाज की पुनर्रचना की — जो स्वतंत्र विचारों को सम्मान दे, बहिष्कार नहीं।
जब तक हम इन दड़बों के ठेकेदारों को ईश्वर मानते रहेंगे, तब तक इंसान नहीं बन सकेंगे। क्योंकि ये ठेकेदार हमें हिन्दू, मुसलमान, भाजपाई, कांग्रेसी बनाना जानते हैं — लेकिन इंसान नहीं बनाना चाहते।
इसीलिए आज ज़रूरत है दड़बों से मुक्ति की।
धर्म से नहीं — ढकोसलों से मुक्ति की।
राजनीति से नहीं — दलबंदी और विद्वेष से मुक्ति की।
क्योंकि जो दड़बे हमें इंसानियत से दूर करें,
वो चाहे कितने ही पवित्र नामों से पुकारे जाएं,
वे अंततः अधर्म ही हैं।
“जिस धर्म में करुणा नहीं, वह केवल परंपरा है।
जिस राजनीति में सेवा नहीं, वह केवल सत्ता की दलाली है।”
अब समय है उठने का, सोचने का, और इंसान बनने का।
~ विशुद्ध चैतन्य
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