वृक्षारोपण स्वतंत्रता है, जबकि संतानोत्पत्ति माफिया-तंत्र की गुलामी

सावन के महीने में अपने हाथों से लगाए गए पपीते के पौधे जब बड़े होकर हरे-भरे हो जाते हैं, तो हृदय आनंद से भर उठता है। यह सुखद अनुभूति अवर्णनीय होती है—एक ऐसा जीवन, जिसे आपने मिट्टी में बोया था, अब फल देने को तैयार है।

वृक्ष—चाहे वे फलदार हों, पुष्पों से लदे हों या औषधीय गुणों से युक्त—हमेशा लाभ ही पहुंचाते हैं। वे न कोई मांग रखते हैं, न ही शिकायत। वे हमें छाया देते हैं, शुद्ध वायु देते हैं, जीवन देते हैं। वे जितना हमसे लेते हैं, उसका कई गुना लौटाते हैं।
परंतु क्या मनुष्य भी ऐसा ही करता है?
कोई ग्रामीण युवक कठिन परिश्रम कर UPSC जैसी परीक्षा पास करता है और फिर महानगरों में करोड़ों की संपत्ति का स्वामी बन जाता है—जैसे कोई ‘नलिन प्रभात’। लेकिन वह गाँव, जिसने उसे जीवन, संस्कार और अवसर दिए—उसे क्या मिला बदले में?
कोई विदेश चला जाता है और वहीं बस जाता है। पीछे रह जाता है वह गाँव, वह मिट्टी, जिनका वह ऋणी था। इस प्रक्रिया में लाखों माता-पिता अपनी संतानों के विदेश बस जाने पर स्वयं को धन्य समझते हैं—जैसे जीवन का अंतिम उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति और फिर उनकी स्मृति में तड़पते रहना हो।
संतान उत्पन्न होते ही चारों ओर से गिद्ध मंडराने लगते हैं—डॉक्टर, नर्स, शिक्षक, ट्यूटर, स्कूल एडमिन, बीमा कंपनियाँ, बैंक…। संतानोत्पत्ति मानो एक ऐसा फंदा है, जिसमें जीवन भर फँसकर व्यक्ति लुटता रहता है—आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से।
आप उन्हें महँगी शिक्षा दिलाते हैं, परंतु वे पढ़-लिखकर उसी व्यवस्था की सेवा में लग जाते हैं, जो जनता को लूटने का तंत्र है। कई तो विदेशों में रहकर भी स्वयं को ‘देशभक्त’ समझते हैं, जबकि उनका कर्म और कर योगदान विदेशी अर्थव्यवस्था को समर्पित होता है।
लोग तर्क देते हैं कि प्रवासी भारतीय विदेशी मुद्रा भेजते हैं। पर यदि यह वास्तव में राष्ट्रहितकारी होता, तो देश की सरकारें आम जनता से तरह-तरह के टैक्स वसूलकर क्यों लूट रही होतीं? आज के समय में व्यक्ति अपनी ही कमाई पर अपना अधिकार नहीं रख सकता। बैंक, सरकारें, संस्थाएँ—सब मिलकर उसकी गाढ़ी कमाई को नियंत्रित और शोषित करती हैं।
इंसान को स्वतंत्र नागरिक नहीं, एक पालतू पशु या कोल्हू का बैल बना दिया गया है।
इसलिए आज आवश्यकता है एक नई सोच की—एक नई संस्कृति की।
विवाह और संतान की अवधारणाएँ अब अपरिहार्य नहीं रहीं। इनसे अधिक आवश्यक है प्रकृति से जुड़ना—कृषि और बागवानी को अपनाना।
एक संतान यदि सरकारी नौकरी में जाएगी, तो उसी लुटेरी व्यवस्था की कठपुतली बनेगी, जो अपने ही गाँव को खोखला करती है। वहीं एक वृक्ष—शांति लाएगा, जीवन देगा, छाया और सौंदर्य देगा। वृक्ष न जाति देखता है, न धर्म। वह किसी के घर उजाड़ने नहीं आता, केवल जीवन सँवारने आता है।
इसलिए—यदि आप वास्तव में देशभक्त हैं, समाजसेवी हैं, तो संतान उत्पन्न करने के स्थान पर कम से कम दस वृक्ष लगाइए।
वृक्ष रिश्वत नहीं लेते, नफरत नहीं फैलाते, और पीढ़ियों तक सेवा करते हैं—निस्वार्थ।
आइए, एक नई परंपरा शुरू करें—वृक्षारोपण की।
यही है सच्ची सेवा—देश की, समाज की, और प्रकृति की।
~ विशुद्ध चैतन्य
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