आश्वासन गर्म नहीं होते: एक प्रेरक कथा

सर्दी अपने चरम पर थी। हवा की हर सिहरन शरीर को छूती, और मानो आत्मा तक को ठिठुरा देती। सड़क के किनारे, एक पुरानी दुकान की छांव में, एक बूढ़ा भिखारी सिकुड़ा हुआ बैठा था। उसके फटे-पुराने वस्त्र ठंड को रोकने में असमर्थ थे। उसके कांपते हाथों में प्रार्थना का कंपन था, और आँखों में एक ऐसी लौ, जो बुझने की कगार पर थी। वह ठंड से ज़्यादा, जीवन की उदासीनता से कांप रहा था।
वादों का भ्रम और करुणा की सैर
तभी एक चमचमाती कार रुकी। उसमें से उतरा एक व्यक्ति—महंगे ओवरकोट में लिपटा, जिसके चेहरे पर सांसारिक ठाठ की चमक थी। उसने भिखारी को देखा। एक क्षण को उसकी नज़रें भिखारी की पीड़ा से टकराईं। करुणा भरे स्वर में उसने कहा,
“इतनी ठंड में यहाँ क्यों बैठे हो? रुको, मैं घर से गरम कपड़े लाता हूँ। चिंता मत करो, मैं अभी आता हूँ।”
भिखारी की आँखों में एक किरण जगी। वर्षों बाद किसी ने उससे इतने प्रेमपूर्ण शब्द कहे थे। उसके कांपते होंठों पर एक हल्की मुस्कान आई, और वह उस वादे को पकड़कर बैठ गया—मानो वह वादा उसकी ठंड को दूर कर देगा।
सांसारिकता में खोया मन
उधर, वह व्यक्ति अपने गरम घर पहुँचा। मुलायम बिस्तर, गरम कॉफी, और सांसारिक व्यस्तताओं ने उसे घेर लिया। एक फोन कॉल ने उसे बिज़नेस की दुनिया में खींच लिया। उसने भिखारी के लिए किया वादा भुला दिया, और नींद की आगोश में समा गया।
क्या यही हमारी भी आदत नहीं है? हम कितनी बार दूसरों के दुख को देखकर वादे करते हैं, और फिर अपनी सांसारिकता में खो जाते हैं?
ठंडी रात और बुझती उम्मीद
रात गहराती गई। सर्द हवाएँ और तीखी होती गईं। भिखारी की आँखें रास्ते की ओर टिकी रहीं। वह मन ही मन बुदबुदाता रहा—शायद अब आएगा… अभी आएगा… पर वह “अभी” कभी नहीं आया।
सुबह जब दुकान खुली, तो भिखारी वहीं था—स्थिर, ठंड से जमा हुआ, अब नश्वर शरीर से मुक्त। उसके पास एक कागज़ पड़ा था, जिस पर कांपते हाथों से लिखा था: “आश्वासन गर्म नहीं होते…”
चिंतन: क्या हम वास्तव में करुणामय हैं?
यह कथा हमें आईना दिखाती है। हम कितनी बार दूसरों को आश्वासन देकर भूल जाते हैं? “मैं देखता हूँ”, “अभी करता हूँ”, “बाद में मदद कर दूँगा”—ये शब्द कितने सरलता से हमारे मुँह से निकलते हैं, पर क्या हम उन्हें निभाते हैं?
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो करुणा केवल शब्दों में नहीं, कर्म में प्रकट होती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”—हमें कर्म करना है, फल की चिंता किए बिना। क्या हमारी करुणा भी ऐसी ही निःस्वार्थ होनी चाहिए?
निष्कर्ष: आत्म-जागृति की ओर
सहानुभूति शब्दों से नहीं, कर्मों से सिद्ध होती है। एक गरम कम्बल, एक समय पर दी गई मदद, या एक पूरा किया वादा—यह किसी की आत्मा को ठंड से बचा सकता है। “आश्वासन गर्म नहीं होते…”, पर आपकी करुणा किसी के जीवन में सूर्य की किरण बन सकती है।
आइए, अपने भीतर की उदासीनता को त्यागें, और सच्ची करुणा को कर्म में ढालें। यही विशुद्ध चिंतन का मार्ग है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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