तारीखों की बरसात सम्बन्धों में दरार डाल देती है

“तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख… और फिर हर तारीख पर तारीख…” यह डायलॉग न केवल अदालतों की धीमी गति को दर्शाता है, बल्कि यह हमारे दैनिक जीवन में भी देखने को मिलता है। जब हम किसी से सहायता या सहयोग मांगते हैं, तो अक्सर हमें तारीखें दी जाती हैं।
उधार वापस मांगने जाओ, तो तारीखें मिलेंगी। अपनों से सहायता मांगने जाओ, तो तारीखें मिलेंगी। कभी किसी मुकदमे में फंस जाओ, तो तारीखें मिलेंगी। लेकिन यदि आप किसी के लिए महत्वपूर्ण हैं, तो तारीखें नहीं मिलेंगी, बल्कि आधी रात को भी जिला अदालत तो क्या, सुप्रीम कोर्ट तक खुल जाएगा। और कई बात तो अदालत ही स्वयं चलकर घर तक पहुँच जाता है।

तेलंगाना के निजामाबाद में बहू ने बुजुर्ग सास-ससुर पर दहेज उत्पीड़न का केस किया, हालत देख जज ने कोर्ट के बाहर किया इंसाफ।
बुजुर्ग दंपती कांतापु सयाम्मा और कांतापु नादपी गंगाराम के खिलाफ उनकी बहू द्वारा दर्ज कराया गया ये मामला झूठा पाया गया. दंपती दुर्घटना का शिकार हो गए थे और चलने में असमर्थ थे तो जज शिवा खुद कोर्ट में अपनी कुर्सी छोड़ बाहर आए और ऑटो के सामने ही अपना फैसला सुनाया।
ऐसे जज सभी हो जाए तो देश के हर नागरिक का भला हो जाए
यहां तक कि हमारे अपने रिश्ते भी तारीखों की चपेट में आ जाते हैं। यदि आपसे किसी को प्रेम है, तो वह तारीख नहीं देगा, बल्कि दौड़ा चला आएगा यदि आप किसी संकट में हों। लेकिन यदि आप किसी के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, तो आपको तारीखें मिलेंगी।
मेरे जीवन में अक्सर उनसे सहयोग मिला, जिनसे कभी अपेक्षा ही नहीं की थी। मैंने सत्ता की गलत नीतियों के विरुद्ध लिखा है, अधर्म, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लिखा है। इसलिए सत्ता पक्ष मुझे अपना शत्रु और देशद्रोही मानता है। लेकिन फिर भी कुछ ऐसे लोगों ने सहयोग किया, जो कट्टर मोदीभक्त थे, जन्मजात संघी थे…यह जानते हुए भी कि मैं आरएसएस और दक्षिणपंथियों का विरोधी हूं। लेकिन विपक्षी पार्टी और उसके समर्थकों ने केवल तालियां बजाईं, जयकारे लगाए।
और बहुत से लोग ऐसे हैं, जो सहयोग राशि भेज देते हैं बिना अपना परिचय दिए। मुझे यही नहीं पता चल पाता कि वे संघी-बजरंगी, दक्षिणपंथी हैं, या कोंग्रेसी, वामपंथी या अन्य कोई। ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ना पसंद करता हूं, क्योंकि ये मुझसे किसी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं रखते और मैं इनसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता। ये जानते हैं कि मैं अपना काम कर रहा हूं और जो कुछ भी कर रहा हूं, वह महत्वपूर्ण है किसी न किसी रूप में।
तो तारीखों को अदालतों तक ही रहने दीजिए, क्योंकि अदालत चलती ही तारीखों पर है। न्याय न हो तो अदालतों का कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन तारीखें न हों, तो अदालतों का अस्तित्व ही मिट जाएगा। लेकिन संबंधों में तारीखों को मत लाइए। जब भी आप सहयोग करने योग्य हो जाएं, सहयोग कर दीजिएगा। नहीं भी कर पाए, तो भी संबंध नहीं खराब होंगे। लेकिन तारीख देने के बाद सहयोग नहीं कर पाए, तो संबंधों में कड़वाहट आने लगती है।
इसलिए तारीखें देते समय बहुत सोच-समझकर तारीखें दीजिए, अदालतों की तरह नहीं। संबंधों में तारीखें नहीं, बल्कि सहयोग और प्रेम की आवश्यकता होती है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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