परिवर्तन ही संसार का शाश्वत सत्य नियम है

प्रकृति नवीनता पसंद करती है और धार्मिक लोग पुरातन चीजें। प्रकृति ने कुछ निर्माण किया और फिर यदि उसे लगा कि उससे श्रेष्ठ कुछ और हो सकता है, तो पुराना मिटा दिया और नया गढ़ दिया। फिर चाहे डायनासौर जैसे भारी भरकम जीवों को ही मिटाकर मानवों का निर्माण किया हो या मंगल गृह को बंजर करके पृथ्वी को आबाद किया हो। प्रकृति निरंतर प्रयोग करती रहती है और निरंतर गतिमय रहती है।

ISIS destroying Iraqi treasures,they also destroyed an ancient minaret most recently: In Syria Krak De Chevaliers crusader castle is also in a terrible state now.
वह ठहर ही नहीं सकती क्योंकि समय भी नहीं ठहरता। ठहरा हुआ समाज या मान्यताएँ या सभ्यताएँ लुप्त हो जाते हैं।
भारतीय दर्शन वैराग्यभाव पर अधिक बल देता था, त्याग पर बल देता था और दान पर बल देता था। कारण केवल यही था कि भारतीयों के पास अनुभव अधिक था। उन्होंने जो कुछ समझा और अनुभव किया वह सब शास्त्रों के द्वारा सबको समझाने का प्रयास भी किया। आज भी यदि भारतीय संस्कृति को देखें तो सभी के साथ समन्वय बनाने के विरासत में मिली अपने संस्कार के अंतर्गत ही चल रही है।
नई चीजों को समझना प्रयोग करना मानव प्रकृति है और हमारे ऋषि मुनियों ने इसी कौतुहल और जिज्ञासा के कारण ही बहुत कुछ समझा और उन्हें लिपिबद्ध किया।त्याग, दान आदि का मुख्य उद्देश्य था कि व्यक्ति अनावश्यक संग्रह न करे और जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं उनका सहयोग भी हो जाया करे। लोग वस्त्र आदि दान करते थे तो एक चक्र चलता रहता था और ठहराव की स्थिति नहीं बनती थी।
यही कारण है कि व्हेन सांग आदि जब भारत आये तो उन्होंने भारत को बहुत ही समृद्ध पाया और चोरी आदि की घटनाएं नगण्य दिखीं। लोग घरों में ताला लगाना भी आवश्यक नहीं समझते थे। क्योंकि एक चक्र चल रहा रहा था और सभी को उस चक्र से लाभ हो ही रहा था। यह और बात है कि त्याग आदि का आज अर्थ बदल गया और लोग घर-बार छोड़ कर भागना, या दिखावे के लिए दान करना शुरू कर दिया। उससे समाज का भला तो हुआ नहीं, उलटे धर्म ही व्यापार बन गया। समाज का नैतिक और अध्यात्मिक पतन होता चला गया।

अफगानिस्तान में जो बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ी गयीं और अब ईराक में जो तोड़फोड़ चल रही है, वह भी मानसिक रूप से बीमार हो चुके लोगों की बीमारी के लक्षण हैं। यह सिद्ध कर रहा है कि उनकी मान्यताएं व विश्वास अब ठहर चुकीं हैं और आगे बढ़ने में अक्षम हो चुकीं हैं। वे वापस लौटना चाहते हैं क्योंकि आगे उन्हें भय लग रहा है।
और प्रकृति किसी को वापस नहीं लौटने देती। जैसे पृथ्वी वापस नहीं गति कर सकती, समय वापस नहीं हो सकता, शब्द वापस नहीं हो सकते। तो चूँकि उनकी अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं है, सिवाय लूट-पाट और अत्याचार के, इसलिए वे दूसरों की उपलब्धियों की निशानी को मिटा देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि कोई यह न कह सके कि वे जिस स्थिति में भविष्य में होंगे, उससे अधिक समृद्ध कोई और पहले रह चुका हो। उन्हें वे सारे प्रमाण मिटाने होंगे, जो सिद्ध करते हैं कि उनके आने से पहले कोई समृद्ध था आर्थिक, सामाजिक या कला के क्षेत्र में।
जब कोई सम्प्रदाय या मत ठहर जाता है या पीछे की ओर गति करना शुरू कर देता है, तो वही होता है जो ईराक और सीरिया में हो रहा है। हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह क्यों हो रहा है बल्कि यह तो प्रकृति का विधान है। डायनासौर भी आपस में एक दूसरे को ही मारकर खाने लगे थे अंत समय में क्योंकि आगे गति करने के लिए उनके पास कोई दिशा ही नहीं थी।
जल भी यदि एक ही जगह ठहरा रहे तो वह भी एक ऎसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, जिसे छूते ही कोई भी जीव पत्थर का बन जाता है कुछ ही पलों में। ठहरा हुआ जल आरंभ में कई प्रकार के जीवाणुओं को जन्म देता है जो कई प्रकार की बीमारियों का कारण बनते हैं। बाद में वह जल निर्जीव हो जाता है और एक ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जो केवल मृत्यु ही दे सकता है। यहाँ तक कि वहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म बैक्टीरिया तक नहीं पनप सकती।
हम जब सनातन धर्म की बात करते हैं, तो वास्तव में कोई मानवनिर्मित धर्म की बात नहीं करते और न ही किसी विशेष विधि विधान की। सनातन धर्म वास्तव में वह धर्म है जो सभी जीव जंतु सामान्य रूप से पालन करते हैं। जैसे शेर भी यदि शिकार करता है, तो केवल आपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही करता है, अनावश्यक हिंसा नहीं करता।
यह भी प्रकृति का ही नियम है कि वह हिंसक है, लेकिन वह आतंवादी नहीं होता। वह प्रकृति के सिद्धांतों के अधीन ही रहता है कोई नियम नहीं तोड़ रहा होता और न ही कोई पाप कर रहा होता है। अजगर भी महीने में एक बार ही शिकार करता है और फिर आराम करता रहता है। शेर अट्ठारह घंटे सोता है…. तो यह सभी सनातन धर्म के अधीन ही हैं। लेकिन यदि हम इनसे घृणा करने लगें कि ये शाकाहारी क्यों नहीं है…. आदि इत्यादि तो दोष उनका नहीं हमारा ही है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी भिन्न भिन्न स्वाभाव के हैं जिन्हें मनु ने चार वर्णों में बाँटा था और ज्योतिष ने १२ वर्गों में अंक ज्योतिष ने ९ वर्गों में।
उद्देश्य उनका बिलकुल सही था क्योंकि वे सनातन धर्म के आधार पर सारी व्यवस्था कर रहे थे, लेकिन दुर्भाग्य से आगे चलकर लोगों ने शास्त्रों पर आधारित व्यवस्था को ही धर्म मान लिया और ऊपर बढ़ने के स्थान पर नीचे की ओर गति करने लगे। शास्त्र आधारित धर्म और संविधान आधारित न्याय की समान स्थिति हो गयी। शास्त्र थे कि यदि कहीं कोई भूल हुई तो उसे समझ सकें और उससे श्रेष्ठ यदि कुछ हो तो उसे स्वीकार कर सकें। वे मानक थे न कि बाधा।
संविधान भी इसी प्रकार मानक था, न कि बाधा। लेकिन आज संविधान को आधार बना कर ही सारे अपराधी सत्ता में पहुँचने लगे। न्यायिक संस्था व्यावसायिक संस्था बन गई क्योंकि समयानुसार संशोधन नहीं किया गया। विद्वानों में कोई शोध नहीं किया कि क्यों न्याय में देरी हो रही है और उसे कैसे गति दी जा सकती है। उन्होंने कभी प्रयास नहीं किया कि न्यायिक व्यवस्था को और श्रेष्ठ कैसे बनायें। उलटे अपराध बढ़ते चले गये और कानून पर कानून बनते चले गये।

तो इस प्रकार आप देखेंगे कि जब हम शोध और प्रयोग बंद कर देते हैं और ठहर जाते हैं, तो अवनति शुरू हो जाती है। व्यभिचार, भ्रष्टाचार, शोषण, बलात्कार, आतंकवाद… ये सभी उस ठहरे हुए रुग्ण समाज व संस्कृति के रुग्णता के बाह्य लक्ष्ण मात्र हैं। हम आज रोग का निदान नहीं खोजते केवल रोगी की संख्या गिनते हैं। हम आज अपराध का निदान नहीं खोजते, केवल अपराधी को सजा दे देते हैं। यह कुछ वैसा ही हो रहा है, जैसे पेड़ की जड़ पर दीमक लगे हुए हैं और पेड़ की पत्तियों को दोष दिया जा रहा है, सजा दी जा रही है।
अब समाज को तय करना है कि वे रुग्ण हो चुके व्यवस्था को कैसे स्वस्थ कर सकते हैं। समाज को ही तय करना है कि वे आत्मावलोकन करें और देखें कि हमारे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से क्या कोई लाभ होने वाला है ? क्या कोई समस्या सुलझने वाली है ? या फिर हम भी एक लुप्त सभ्यता में अपना नाम लिखवाना चाहते हैं ?
यदि हम घृणा फैलायेंगे, एक दूसरे को कोसते और दोष देते रहेंगे तो क्या समस्या हल हो जायेगी ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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