कागज़ की डिग्रियाँ बटोरने के लिए नहीं हुआ मानव का जन्म

बचपन में अंडमान निकोबार के एक द्वीप में हम उम्र आदिवासियों के साथ खेलते समय शायद यह कभी नहीं ध्यान में आया होगा कि जीवन का उद्देश्य चंद कागज़ के टुकड़े बटोरना मात्र है।
समुद्र के किनारे रेत पर दौड़ना, या मछली पकड़ना या जंगल में हिरण पकड़ने के लिए फंदा लगाना, बस यही जीवन होता था हमारा। दुःख नाम की कोई चीज यदि होती थी उस समय, तो पिताजी की मार ही हुआ करती थी। और तो किसी प्रकार के दुःख से परिचित नहीं था मैं।
लेकिन आज बच्चों को देखता हूँ तो बहुत दुःख होता है। बचपन से नंबरों की दौड़ में दौड़ते बच्चे। जिसके जितने अच्छे न० उतना विद्वान, फिर चाहे वह सड़कों पर गाली गलौज करता घूमे या फिर गुंडागर्दी व बलात्कार करता घुमे, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि बाप के पास कागजों का ढेर है। न बड़ों का सम्मान करना जानते हैं, न ही व्यवहार करना आता है।
बस बचपन से यह बात बैठा दिया गया है उनके मन में कि कागज़ कमाने के लिए ही इंसान का जन्म होता है क्योंकि बाकी सभी काम तो जानवर भी कर लेते हैं। लेकिन डिग्री तो आजकल जानवर भी कमा लेता है, अच्छे पोस्ट भी आजकल जानवरों को मिल रहें हैं, जैसे कैप्टन, सार्जेंट, कर्नल….. (अमेरिकी राष्ट्रपति के डॉगस्क्वाड के कुत्तों के रेंक होते हैं) उनको एक इंसान से भी अच्छी सुविधाएँ व सम्मान दी जाती हैं।
मैं स्वयं आज यह अनुभव करता हूँ कि पशु मनुष्य से श्रेष्ठ होता जा रहा है। क्योंकि उन्हें ब्रम्ह का सही अर्थ पता है। वे जातियों में भेद नहीं करते, वे निंदा नहीं करते, वे प्रेम करना जानते हैं, वे मित्रता करना जानते (जो पशु प्रेमी हैं वे यह बात समझ रहे होंगे)।
हम मानवों के बच्चे बचपन से ही कान्वेंट और सरकारी स्कूल के भेदभाव से ग्रस्त होना शुरू हो जाते हैं, और उसके बाद कौन किसका नौकर है उसपर तय होता है कि वह कितना श्रेष्ठ है। एक सरकारी अधिकारी इस अकड़ में अकड़ा रहता है कि वह सरकार व पूंजीपतियों का नौकर है और आम जनता को कीड़ा मकोड़ा समझ रहा होता है। एक क्रिकेटर और सिने-सितारे यह भूल जाते हैं कि उनका कर्तव्य उन नागरिकों के लिए भी कुछ होता है जो खेत पर काम करके उनके लिए अन्न उपजा रहे होते हैं….. सभी की अपनी अपनी अकड़ होती है।
लेकिन एक पशु को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप की आर्थिक स्थिति क्या है। यदि आप गरीब हैं तो भी वह आपसे स्नेह करता है और आप पूंजीपति हैं तब भी। उसके भीतर नौकर मालिक का भाव नहीं, प्रेम व सम्मान का भाव होता है। वह आपकी मार भी इसलिए सह लेता है, क्योंकि वह आपसे स्नेह करता है। एक हाथी जानता है कि अपने मालिक की वह क्या दुर्गत कर सकता है, लेकिन वह उसके अत्याचार भी सह लेता है।
लेकिन हम मानव कभी भी इतने उन्नत नहीं हो पाए। हम पंडित हैं तो अपनी बिरादरी में खुश हैं दूसरों के साथ चाहे कुछ भी हो। धार्मिकता दर्शाने के लिए देवी देवताओं की तस्वीरे पोस्ट कर देते हैं लेकिन किसी राष्ट्रीय हित से संबधित कार्य कर रहे लोगों को राजनैतिक कहकर पीछा छुड़ा लेते हैं। आगे बढ़ कर साथ देना उन्हें अपमानजनक लगता है।
सभी के अपने अपने ग्रुप हैं, दूसरे ग्रुप के विषय में सोचने का समय ही नहीं किसी के पास। मैं किसी और की बात क्यों करूँ, मैं भी ऐसा ही हूँ। मुझे भी पसंद नहीं है किसी और विषय में बात करना सिवाय राष्ट्रहित के। मुझे भी कोई रूचि नहीं है नेताओं की निंदा करो अभियान में भाग लेने का। मुझे भी कोई रुचिं नहीं है उन सिने-सितारों व क्रिकेट सितारों में जो किसी आदिवासी या किसान पर हो रहे अत्याचारों से ऑंखें मूंदकर बैठे हैं। मुझे भी कोई रूचि नहीं है उन संतों-महंतों में जो शास्त्रों के श्लोक पोस्ट करते रहते हैं लेकिन फूटी कौड़ी किसी के सह्यातार्थ नहीं खर्च पाते। मुझे भी कोई रूचि नहीं है उन डिग्रीधारियों में जिनकी डिग्री राष्ट्रहित में काम न आ रही हो। मुझे भी कोई रूचि नहीं है उन आश्रमों और बड़े धार्मिक संस्थानों में, जिनके पास धन का भण्डार है, लेकिन नेताओं को खुश करने में खर्च कर रहें हैं। मुझे भी कोई रूचि नहीं है उन धार्मिक संगठनों में जो किसी नेता के जयकारा में लगे हैं, आम नागरिकों को डराते धमकाते फिरते हैं, लेकिन भूमाफियों के विरुद्ध कुछ बोलते हुए भी होंठ सुख जाते हैं और हाथ पैर कांपने लगते हैं।
क्योंकि ईश्वर ने मुझे मानव बनाकर भेजा प्रकृति ने मुझे शिक्षा व सहयोग दिया और आत्मा ने मुझे मार्गदर्शन दिया। मैं भारत व भारत के नागरिकों को समग्रता से अनुभव करता हूँ, खण्डों में नहीं। जो खण्डों में बंटे हुए हैं उन्हें भी कुछ भला बुरा कह जाता हूँ तो केवल इसलिए कि मैं उन्हें भी भारतीय ही मानता हूँ और मानता हूँ कि जिस दिन वे अंतरात्मा को सुनेंगे सहयोग के लिए स्वतः आगे आयेंगे। क्योंकि मानव का जन्म डिग्री व कागज़ बटोरने के लिए नहीं हुआ है, मानव का जन्म हुआ है अपनी योग्यतानुसार सहयोगी होने के लिए। लेकिन हम अपने बच्चों को यह संस्कार नहीं दे पा रहे, हम बच्चों को यह अवसर नहीं दे पा रहे कि वे स्वयं के भीतर राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध का स्वाभाविक गुण विकसित कर पायें। हमें उनके मन में बैठा दिया है कि उनका जन्म नौकर बनकर पूंजीपतियों की सेवा करने, धर्म के नाम पर दूसरों की निंदा करने, व नेताओं के जयकारा लगाने के लिए हुआ है।
~विशुद्ध चैतन्य
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