सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है

माना जाता है कि सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है। अर्थात जैसी समाज की मानसिकता होगी वैसे ही विषय व दृश्य सिनेमा में दिखाया और देखा जाएगा।
पहले मदर, इंडिया शोले जैसी फिल्में सफल हुआ करती थीं क्योंकि फिल्म के निर्माता निर्देशक लेखक आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित रहते थे डाकुओं से। साधारण जनमानस शोषित थे उनसे इसलिए फिल्मों में डाकुओं को पिटते देख कर मन हल्का कर लेते थे। साथ उन दिनों वे फिल्में भी सफल होती थीं जो देशभक्ति पर आधारित हुआ करती थी।
फिर आ गया दौर रोमांटिक फिल्मों का और कई सुपर हिट और यादगार फिल्में आयीं उस दौर में। अराधना, अनामिका जैसे कुछ नाम आज भी याद हैं।
फिर समय आगे बढ़ा और समाज आधुनिक हो गया और बनने लगी छिछोरी फिल्में जिनके नाम भी एक दिन से ज्यादा याद नहीं रह पाते थे। कारण था कि उस समय फिल्म जगत में आने वालों के पास लक्ष्मी तो थी लेकिन सरस्वती नाराज थी। इसलिए फिल्मों में पैसा खूब खर्च होता था लेकिन अक्ल का आभाव हो गया था।
और आज का दौर है बेडरूम और बाथरूम का। आज का समाज बाथरूम और बेडरूम में ही सिमट कर रह गया। कोई भी फिल्म बिना बेडरूम और बाथरूम सीन के बनाना और बेचना असंभव हो गया है।
पहला कारण तो यह है कि अब झुग्गी वालों के पास पैसा अधिक आ गया क्योंकि वे ३२ रूपये प्रतिदिन कमा रहें हैं इसलिए गरीबी रेखा से ऊपर आ गये। पैसा संभाले नहीं संभल रहा लेकिन इतना पैसा भी नहीं है कि बड़ा लक्ज़री बाथरूम और बेडरूम बनवा सकें अपने 6×6 फीट के आलिशान महल में। तो वे १०० रुपए में वह मजा ले लेते हैं जिसके लिए लाखों रूपये खर्च करने पड़ते हैं।
दूसरा कारण है फिल्म जगत के ऊँचे लोग। उनके पास अँधा पैसा आ रहा है और अक्ल घास चरने गई हुई है। उनकी मानसिकता बिस्तर और जिस्म तक ही सिमट कर रह गया। स्त्रियों को आजादी के नाम पर कपड़ों से भी मुक्त करवा रहें हैं। स्त्रियाँ भी जिस्म को देख कर लार टपकाते लम्पटों की वाह वाही को अपना सम्मान समझ कर कपड़ों से मुक्त हो रहीं हैं।
अर्थात पहले हम मानसिक रूप से अधिक उन्नत थे आज की तुलना में। पहले राष्ट्र, अध्यात्म व नैतिकता को महत्व दिया जाता था लेकिन आज कल बेडरूम और बाथरूम को।
-विशुद्ध चैतन्य
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