गाँधी ने भारत की सत्ता दूसरों के हाथों में देकर बहुत नुक्सान पहुँचाया

हम ऐसे अभागे लोग हैं कि हम दुर्भाग्य की निरंतर प्रशंसा करते हैं। भारत में अगर थोड़ी से भी समझ होती तो भारत भर में उपवास किये जाने चाहिए थे, अनशन किये जाने चाहिए थे, गाँधी के विरुद्ध और सारे भारत पर जोर डालना चाहिए थे कि एक अच्छे आदमी के हाथ में ताकत जा सकती है, तो आप सत्ता में बैठें। हम किसी और को सत्ता नहीं देना चाहते। लेकिन भारत यह न कर सका, क्योंकि भारत की पुरानी आदत…उसको बहुत अच्छा लगा कि ये महात्मा हैं, ये कैसे सत्ता में जा सकते हैं। बल्कि हम खुश हुए और हमने गाँधी की प्रशंसा की।
सारे देश को गाँधी पर दबाव डालना था कि चाहे तुम महात्मापन को छोड़ो लेकिन भारत को एक मौका मिला है, अच्छे आदमी के हाथ में आने का, उसे हम नहीं छोड़ना चाहते। चाहे तुम्हें नरक जाना पड़े और तम्हारा मोक्ष छूट जाए तो इसकी फ़िक्र मर करो। इस गरीब मुल्क के लिए, इस दीन-हीन राष्ट्र के लिए इतना त्याग और कर दो। एक दफ़े जन्म और ले लेना और तपश्चर्या कर लेना। लेकिन भारत के एक भी आदमी ने या नहीं कहा, क्योंकि भारत की मुर्खता बहुत पुरानी है, बहुत प्राचीन है।
हमारे मन में यह ख़याल है कि अच्छे आदमी को राजनीति में जाना ही नहीं चाहिए। हम बड़े अजीब लोग हैं। हम बहुत ही कंट्राडिकटरी, असंगत लोग हैं। एक तरफ हम कहते हैं कि राजनीति बुरी होती जा रही है, एक तरफ हम गाली देते हैं कि राजनीती गुंडागिरी होती जा रही है और दूसरी तरफ हम कहते हैं कि राजनीति में अच्छे आदमी को भाग नहीं लेना चाहिए। इन दोनों बातों में क्या कोई संगती है ?
जब आप कहते हैं कि राजनीति में अच्छे आदमी को भाग नहीं लेना चाहिए तो फिर दोष क्यों देते हैं कि राजनीति में बुरे लोग घुस गए हैं ?
इन सब बातों में मेल क्या है, तुक क्या है, संगती क्या है ?
या तो यह मान लीजिये कि अच्छे लोगों को राजनीती में भाग नहीं लेना है, तो बंद कर दीजिये या निंदा और आलोचना कि राजनीति में बुरे लोग हैं। बुरे लोगों के सिवाय वहाँ कोई और हो कैसे सकता है, क्योंकि आप अच्छे आदमी को तो राजनीति में जाने नहीं देना चाहते ?
लेकिन हम अजीब लोग हैं, एक तरफ हम कहेंगे कि अच्छे आदमी को राजनीती में नहीं जाना है और जब कोई अच्छा आदमी राजनीति की ओर जाने लगे तो लोग कहेंगे कि अरे ! या आदमी भी डूबा, यह आदमी भी गया, हो गया भ्रष्ट। और दूसरी तरफ हम कहेंगे कि राजनीति बुरे लोगों के हाथों में जा रही है। किसके हाथों में जाएगी ?
क्या आप चाहते हैं कि राजनीति किसी के हाथों में न जाए ?
अगर अच्छे आदमी वहाँ नहीं होंगे, तो बुरे आदमी के हाथों में जायेगी राजनीति। और मैं आपसे कहता हूँ कि इसका जिम्मा अच्छे आदमी पर है कि राजनीति बुरे आदमी के हाथों में जाती है। क्योंकि अच्छे आदमी जगह छोड़ देते हैं और बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर देते हैं।
गाँधी ने सबसे बड़ा काम किया कि उन्होंने देश की राजनीति में भाग लिया। लेकिन यह प्रयास ऐसा कि जैसे कोई आदमी डूब रहा हो और मैं उसे बचाने जाऊं और उसे बचाकर किनारे पर ले आऊँ और ठेठ किनारे पर छोड़ कर फिर बाहर निकल जाऊँ। और वह किनारे पर ही डूब जाए…. वह तो मँझधार में डूब रहा था। गाँधी ने भारत को बचाने की कोशिश की, लेकिन आखिरी क्षणों में डगमगा गये। गाँधी ने भारत की सत्ता दूसरों के हाथों में देकर बहुत नुक्सान पहुँचाया।
जिन लोगों के हाथ में सत्ता आयी, उन लोगों ने पहले तो सबसे बड़ा काम यह किया कि धर्म और राजनीति का सम्बन्ध तुड़वा दिया। नेहरू के मन में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी, नेहरु के चित्त में धर्म के लिए कोई आदर नहीं था। नेहरू शुद्ध राजनीतिक व्यक्ति थे, नेहरू और गाँधी जैसे विरोधी खोजना कठिन है जो एक ही साथ शिष्य और गुरु की तरह समझे जाते हों। गाँधी बिलकुल अलग तरह के आदमी हैं, नेहरु बिलकुल अलग तह के आदमी हैं। गाँधी के लिए अहिंसा जीवन और मरण का प्रश्न है, नेहरू के लिए अहिंसा पॉलिसी से ज्यादा नहीं है…. एक तरकीब, एक राजनैतिक चाल। गाँधी एक धार्मिक व्यक्ति हैं, नेहरु एक शुद्ध राजनैतिक व्यक्ति हैं। एक धार्मिक व्यक्ति के हाथों में ताकत जाती तो मुल्क का भाग्य बदलता, हम और ढंग से सोचते। लेकिन वह ताकत एक धार्मिक आदमी के हाथों में नहीं जा सकी, क्योंकि धार्मिक आदमी हमेशा कमजोर साबित हुआ और उसने कहा कि मैं ताकत कैसे ले सकता हूँ ?
नहीं ! मैं ताकत नहीं ले सकता, मैं लात मारता हूँ राजसिंहासन पर !
राजसिंहासन राजनीतिज्ञ के हाथों में चला गया और फिर गाँधी के बड़े शिष्य हैं विनोबा। एक तरफ गाँधी ने राजनीति से अपना हाथ अलग किया, सत्ता दूसरों के हाथों में दी, दूसरे भारत में विनोबा ने या काम किया कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना चाहिए, उसे भूदान का काम करना चाहिए, सर्वोदय का काम करना चाहिए। जो बचे-खुचे अच्छे लोग राजनीति में थे, उन्हें विनोबा बुरी तरह ले डूबे, जयप्रकाश जैसे अच्छे आदमी को डुबा दिया उन्होंने। पहले तो अच्छे आदमी, गाँधी की हिम्मत टूट गयी, फिर विनोबा ने अच्छे आदमी को कहा कि राजनीति में नहीं जाना है तुम्हें। तुम्हें तो गाँव की सेवा करनी है। विनोबा ने ऐसे अच्छे लोगों को रोक लिया राजनीति में जाने से। अब भारत की राजनीति अगर बुरे लोगों के हाथ में पड़ गयी तो जिम्मेवार कौन है ?
मैं न० एक गाँधी को और न० दो विनोबा को जिम्मेवार ठहराता हूँ। मैं आपसे यह कहता हूँ कि भारत की राजनीति हर पाँचवे वर्ष और रद्दी हाथों में जायेगी। क्यों ?
क्योंकि नियम है जीवन का और वह यह है कि अगर बुरे आदमी को ताकत से हटाना हो तो आपको बुरा होना पड़ता है। इसके बिना आप उसको हटा नहीं सकते। अगर वह चालाक है तो आपको ज्यादा चालाक होना पड़ेगा, अगर वह बेईमान है तो आपको ज्यादा बेईमान होना पड़ेगा। अगर वह छुरे की धमकी देता है तो आपको पिस्तौल से धमकी देनी चाहिए। तब तो आप उस आदमी को हटा सकते हैं। पिछले पन्द्रह-बीस साल में हर पाँच साल में बुरे आदमी को हटाया गया और उनकी जगह जो लोग गये वे उनसे भी बदतर थे। और आप यह पक्का मानिए कि उनको उनसे बदतर लोग ही हटा सकेंगे। तीस सालों से भारत में गुंडों का राज्य सुनिश्चित है। तीस साल के भीतर भारत में सिवाय गुंडों के, ताकत में कोई नहीं पहुँच सकेगा और अगर उनको हटाना पड़े, तो आपको उनसे बड़ा गुंडा सिद्ध होना पड़ेगा, इसके अतिरिक्त और कोई योग्यता नहीं रह जानेवाली है।
आज भी हालत यह है कि लोग हुकूमत से हट गए हैं, वे सिर्फ इसलिए हट गए हैं कि उनसे ज्यादा बुरे लोग वहाँ पहुँच गये हैं। और अगर कल ये लोग उनको हटा सके तो आप पक्का समझना कि ये उनसे ज्यादा बुराई पाँच साल में सीख गए हैं इसलिए हटा पाए, अन्यथा हटा नहीं सकते थे। मगर यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रोज देश बुरे से बुरे हाथों में चला जाए। दूसरा नियम यह भी मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि अगर अगर एक बुरे आदमी को हटाना हो तो आपको उससे भी बुरा होना पड़ता है और अगर एक अच्छे आदमी को हटाना हो तो आपको उससे अच्छा आदमी सिद्ध होना पड़ेगा, तब आप उसे हटा सकते हो।
ये दोनों नियम एक साथ ही काम करते हैं। अगर भारत की राजनीति में हमने अच्छे लोगों को जगह दी होती, तो भारत तीस साल में अच्छे से अच्छे लोगों के हाथ में पहुँच गया होता। क्योंकि एक अच्छे आदमी को हटाने के लिए जिस आदमी को हमें आगे लाना होता है वह उससे अच्छा आदमी सिद्ध होता, तभी हटा सकता था अन्यथा नहीं हटा सकता था। लेकिन अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, धार्मिक आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, तो फिर राजनीति अधार्मिक हाथों में है तो परेशान क्यों होते हो ? फिर पीड़ित क्यों होते हो ?
~ओशो (पुस्तक: भारत के जलते प्रश्न; प्रवचन १८)
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