महाराज आप अकेले नहीं हम सब आपके साथ हैं !!

कई हज़ार साल पहले की बात है ! एक गाँव में एक संत रहता था। गाँव की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अपने परिवार को ठीक से खिला सकें लेकिन थोड़ा बहुत संत को खाने को मिल ही जाता था। वह हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करता कि हे ईश्वर सभी को समृधि दे। इस तरह कई वर्ष बीत गए, न तो समृद्धि आई और न ही स्थिति में कोई सुधार हुआ।
संत कई बार गाँव के लोगों को समझाने का प्रयास करता कि कुछ ऐसा काम किया जाय जिससे सभी का विकास हो। लेकिन सभी कहते. “हम तो रोज पूजा करते हैं मंदिर में और इससे ज्यादा क्या करें ? भूख और बेकारी से सभी इतने त्रस्त हैं कि दारु पिए बिना नींद नहीं आती और कभी कभी तो दारु पीने के पैसे भी नहीं होते। और आप कहते हो कि कुछ करो।”
संत भी अकेला क्या कर सकता था वह भी अपने आश्रम में बैठा इन्टरनेट में अंग्रेजी फिल्म देखता रहता।
एक दिन संत ने कुछ करने का मन बनाया और अपने बगीचे में जाकर बिना कुछ सोचे समझे खोदना शुरू किया। लोगों ने देखा संत गड्ढा खोद रहा है तो सभी सहानुभूति जताने आ गए कि देखो बेचारा अपने लिए कब्र भी खुद ही खोद रहा। लेकिन मदद किसी ने नहीं की।
संत गड्ढा खोदते-खोदते पाताल लोक पहुँच गया। वहाँ जाकर देखा कि वह किसी ऐसी जगह पहुँच गया है जहाँ चारों ओर खजाना बिखरा पड़ा है। उसने एक बोरी में खजाना भरा और ऊपर आ गया।
गाँव वालों ने देखा सोने के सिक्कों से भरी बोरी लेकर संत आया है तो आश्रम में मेला लग गया। हर कोई चढ़ावा लेकर आने लगा संत के लिए। कल तक एक रोटी जिस गाँव में मुश्किल से मिलती थी वहीँ आज दुनिया भर के पकवानों का ढेर लग गया था।
संत ने बताया कि उस जगह इतना ख़जाना बिखरा पड़ा है, जितना किसीने अपने पूरे जीवन में न देखा हो। लेकिन मैं तो बुढा हो गया हूँ इसलिए इतना ही ला पाया। बस देखते ही देखते बड़े बड़े बैगों से लैस होकर हजारों लोग खड़े हो गये।
“महाराज आप अकेले नहीं हैं ! हम सब आपके साथ है ! आप को कोई काम करने की आवश्यकता नहीं है। आप तो बस आदेश कीजिये हम सेवा के लिए तैयार हैं….”
अचानक लोगों ने देखा कि सोने के सिक्कों से से भरी उस बोरी का रंग बदल गया। लोगों ने पास जाकर देखा तो पाया कि उसमें राख भरा हुआ है। संत ने अपने हाथ ऊपर किये और ईश्वर को धन्यवाद दिया। कुछ ही क्षण बाद आश्रम फिर वीरान हो गया। अचानक संत ने आँखे खोली तो देखा कि वह कंप्यूटर टेबल पर ही सो गया था और ऐसा अजीब स्वप्न उसने पहली बार देखा था।
सारांश यह कि सेवा यदि स्वार्थ पर टिका हो तो वह सेवा नहीं है और न ही उस दान का कोई अर्थ है जो किसी फल की कामना के साथ जुड़ा हो, न ही वह प्रार्थना या पूजा कोई सुनता है जो सार्वजनिक हित से रहित हो, न ही उस आशीर्वाद का कोई मोल है जो चंद रुपयों के बदले दिए जाते हों। यह सब व्यर्थ हैं, क्योंकि ईश्वर निष्काम भाव से किये कर्मों को देख पाता है और निष्काम प्रेम को ही समझ पाता है। व्यापार तो मानव धर्म है और मानवों तक ही सीमित रहने दें। न संत व्यापारी होता है और न ही पशु-पक्षी। इसलिए यदि आप व्यवसायी या व्यापारी हैं तो वास्तविक आश्रम और संतों से दूर ही रहें वे आपको कुछ नहीं दे सकते। लेकिन आप इस योग्य हैं कि आप आर्थिक सहयोग दे सकते हैं संत या आश्रमों को तो निष्काम सहयोग करें और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें।
-विशुद्ध चैतन्य
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