क्या मान सम्मान की आशा रखना भी गलत है ?

“स्वामी जी प्रणाम ,आप की आज की पोस्ट पढ़ के कुछ सवाल मन में उठे है कृपया आप उन का निराकरण कर देंगे तो बड़ी कृपा होगी -जैसा आपने कहा की किसी की निस्वार्थ सेवा करने वाला भी बदले में कुछ न कुछ पाने की आशा रखता है तो क्या मान सम्मान की आशा रखना भी गलत है? या काम हो जाने के बाद अगर कोई पलट कर पूछे भी नहीं तो भी बुरा नहीं लगना चाहिय? या फिर वो दोबारा मदद मांगे तो क्या करना चाहिए? दूसरी चीज़ जैसा आपने कहा की कोई हमसे बहुत आशा रखे तो उसे तोड़ देना चाहिए ,क्या ऐसा करना गलत तो नहीं?अगर इस से उसे दुःख पहुचे तो ? कृपया मेरी शंकाओं का समाधान करें ?” –Sudhi Shukla
सुधि जी, आपने बहुत ही ध्यान से पोस्ट को पढ़ा और समझने की कोशिश की इसलिए आपने जो प्रश्न किया वह तर्कसंगत व चैतन्य हैं । अतः उत्तर भी विस्तार में ही देना आवश्यक हो जाता है ।
आपका पहला प्रश्न निःस्वार्थ भाव पर है
जब भीतर हम किसी के लिए कुछ करते हैं, तब एक भाव अवश्य रहता है । चाहे स्वार्थ का हो या निःस्वार्थ का । दोनों ही भावों में स्वार्थ तो है ही । इसलिए आपको अपने भाव को बदलना पड़ेगा । आपका भाव होना चाहिए कि आप एक ऐसे योग्य माध्यम हैं, जिसे ईश्वर ने किसी की सहायता के लिए चुना । चूँकि ईश्वर ने आपको स्वयं चुना है, अतः आप ईश्वर के अधिक समीप हैं । चूँकि आप ईश्वर के अधिक समीप हैं, तो आपकी आवश्यताएं व कष्ट भी ईश्वर से छुपा नहीं हैं ।
तो जब ईश्वर आपको माध्यम बनाकर सामने वाले की सामने वाले की सहायता कर सकता है, तो आपकी भी मदद करेगा ही समय आने पर । तब फिर आपके द्वारा सहायता प्राप्त व्यक्ति से आप अपने लिए किसी प्रतिफल, सहयोग या आभार की अपेक्षा क्यों ?
अतः आपको किसी से प्रतिफल न मिलने पर बुरा भी नहीं लगना चाहिए । आपका स्वार्थ भाव तिरोहित हो जाएगा और आप सामने वाले में भी ईश्वर का रूप ही पायेंगे, जो आपकी सहृदयता की परीक्षा ले रहा है । आप ईश्वर का धन्यवाद कीजिए कि ईश्वर ने आपको को चुना व इस योग्य बनाया कि आप किसी की मदद कर पा रहें हैं ।
आपका दूसरा प्रश्न सम्मान पर है
मान-सम्मान या अपमान का अपना कोई आस्तित्व नहीं है । ये केवल वह भ्रम हैं जो दूसरे निजी स्वार्थ के लिए आपको देते हैं, जबकि वास्तव में उसने आपको दिया ही नहीं होता । ये सब आपको तभी तक मिलता है, जब तक आप उनके बनाए फ्रेम में रहते हैं । जिस दिन आप उनके बनाये फ्रेम से अलग स्वयं के आस्तित्व की खोज करने लगेंगे, वे आपको दिया हुआ वह सम्मान जो कभी आपके पास था ही नहीं वापस ले लेते हैं । आप हमेशा भ्रम में रहते हैं कि कोई सम्मान आपको मिला है, जबकि आपको उन्होंने कुछ नहीं दिया होता । वे जब चाहें उसे आप से छीन सकते हैं । इसलिए स्वयं का सम्मान स्वयं ही कीजिये और यह तभी हो पायेगा जब आप दूसरों से सम्मान की अपेक्षा नहीं करेंगे और वही करेंगे जो आपका अंतर्मन कहता है ।
आपका तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है विश्वास पर
विश्वास वह आधार है जिसपर सृष्टि के सभी प्राणी जीवित हैं । एक भूखा पशु भी इसी विश्वास में इधर उधर फिरता है कि कुछ खाने के लिए मिल ही जाएगा । यदि विश्वास ही किसी का टूट जाए तो वह जीवित नहीं रह पायेगा । इसलिए विश्वास किसी का कभी भी नहीं तोडना चाहिए ।
मैंने कहा कि कोई मुझ पर अत्याधिक विश्वास करता है तो मैं उसे तोड़ देता हूँ… यहाँ मेरा कहने का अर्थ है वह विश्वास जो अंधभक्ति पर आधारित हो । वह विश्वास जो यह मानकर चलता है कि मुझसे कभी कोई गलती नहीं हो सकती । जो यह मानकर चलता है कि मैं कभी किसी को दुःख नहीं पहुंचा सकता । क्योंकि ये विश्वास भी सशर्त होते हैं । आप फिर बंधन में पड़ जाते हैं । आप फिर उन अंधविश्वासियों के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं ।
एक व्यक्ति के रूप में मैं स्वतंत्र रहना चाहता हूँ । मैं नहीं चाहता कि कल कोई मुझसे कहे कि हमें आपसे ऐसी आशा नहीं थी । मैं सभी से कहता हूँ कि मुझ पर भरोसा मत करो क्योंकि मैं जीवित हूँ कोई जड़ पत्थर नहीं कि जैसा आज हूँ कल भी वैसा ही रहूँगा । मैं कोई सरकारी बाबू नहीं हूँ कि एक ही सीट पर जीवन गुजार दूं और फिर पेंशन का इंतज़ार करूँ ।
जीवन का अर्थ है गति । जीवन का अर्थ हैं निरंतर परिवर्तन । और मैं जीवित हूँ । अब यदि किसी को मे्रे इस व्यवहार से दुःख पहुँचता है तो कुछ समय के लिए ही पहुंचेगा और वह मुझ अलग होकर अपने लिए उपयुक्त साथी तलाश लेगा । कम से कम कल मेरे परिवर्तन पर दुखी तो न होगा । कम से कम मुझे बांधने की कोशिश तो न करेगा । आज नहीं तो कल कम से कम कोई ऐसा तो मैं पा जाऊँगा जिसे मुझ में रूचि हो न कि बाह्य आडम्बरों में । कम से कम जिस काम के लिए मैं इस जगत में आया हूँ उसके लिए योग्य सहयोगी तो मेरे साथ जुड़ जायेंगे ।
आप भी यदि विश्वास और अन्धविश्वास में अंतर कर पायें तो आप भी कई अवांछित और अयोग्य व्यक्तियों को पहचान पायंगे । आप भी वह कर पायेंगे जो किसी को केवल खुश रखने के लिए आज तक आप नहीं कर पा रहे थे । क्योंकि यदि किसी को खुश करने के लिए आपको अवांछित करना पड़ रहा है तो इसका अर्थ है कि आप गलत संगत में हैं । लेकिन यदि किसी के लिए कुछ करके आपको प्रसन्नता हो रही है तो आप सही संगत में हैं, जैसे माँ अपने बच्चे के लिए कुछ करके प्रसन्नता अनुभव करती है।
-विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
