स्वतन्त्रता

सम्मान की चाह या स्वतन्त्रता का चुनाव
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सम्मान की चाह या स्वतन्त्रता का चुनाव ?

महत्वपूर्ण यह नहीं कि कौन आपको चाहता है, बल्कि यह है कि कौन आपको महत्व देता है और आपका सम्मान करता है। अक्सर, जब हम दूसरों की नजरों में विशेष बनने की कोशिश करते हैं, तो अपनी मौलिकता खो बैठते हैं। हमें वैसा बनने की मजबूरी होती है, जैसा दूसरा चाहता है। इस प्रक्रिया में…

स्वतन्त्रता या परतंत्रता

स्वतन्त्रता के विरुद्ध और परतंत्रता के समर्थन में होता है समाज

स्वतन्त्रता और परतंत्रता की परिभाषाएँ भी स्पष्ट नहीं हैं यदि समाज पर नजर डालें। क्योंकि समाज ने परतंत्रता को भी स्वतन्त्रता बिलकुल वैसे ही स्वीकार लिया है, जैसे साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा पर आधारित मानसिकता, रीतिरिवाज, मान्यताओं, परम्पराओं, कर्मकाण्डों को धर्म और साम्प्रदायिक द्वेष और आतंक परोसकर शासन करने वालों को धार्मिक मान लिया गया।…

जिन्हें मजिल का जुनून है
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ऐसी शिक्षा का कोई महत्व नहीं जो मानव को स्वतन्त्रता से अनभिज्ञ बनाता है

शिक्षा चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे धार्मिक हो, चाहे वैज्ञानिक हो, चाहे स्कूली हो, अशिक्षा ही मानी जाएगी, यदि शिक्षा व्यक्ति को चिंतन-मनन करने योग्य नहीं बनाता। उस शिक्षा का कोई महत्व नहीं है, जो शिक्षा व्यक्ति को इतना भी शिक्षित नहीं बना पाती कि सही और गलत का अंतर समझ सके। ऐसी शिक्षा का कोई…

स्वतन्त्रता विहीन लोकतन्त्र
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स्वतन्त्रता विहीन लोकतन्त्र

हर देश की शर्तें थी कि हम खुश हैं कि आप यहां रह जाए,
लेकिन आप सरकार के खिलाफ कुछ भी न बोलें और आप इस देश के धर्म के खिलाफ कुछ भी न बोलें। बस ये दो चीजों का वजन, इन दो शर्तों को अगर आप पूरा करें, तो आपका स्वागत है। वही हालत इस देश में भी है।

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मेरी यात्रा परतन्त्रता से स्वतन्त्रता की ओर

कोल्हू का एक बैल जो दिन-रात माफियाओं और सरकारों के लिए पैसे कमाने के लिए मेहनत कर रहा था, अचानक एक दिन जाग जाता है। और जागने के बाद उसे एहसास होता है कि वह तो मानव था, परिवार और समाज ने उसे कोल्हू का बैल बनाकर रख दिया। सेलरी बढ़ने से पहले महंगाई बढ़…

अनुयायी ना तो देशभक्त बन पाये और ना ही धार्मिक बन पाये 675x356.jpg
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शिष्य और अनुयायी ना तो देशभक्त बन पाये और ना ही धार्मिक बन पाये

ऐसा क्यों हुआ कि देश से देशभक्त और धार्मिक लोग लुप्त हो रहे हैं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों और धर्म व जातियों के ठेकेदारों के चाटुकार और भक्तों का वर्चस्व बढ़ता चला जा रहा है ?